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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 261
घंटाकर्ण, पिशाचादि की विद्या से पर के अर्थ का निर्णय करके, निमित्तशास्त्र द्वारा दूसरों को लाभ-हानि आदि बताकर आजीविका चलाना आभियोगिक-भावना है। 78
४. आसुरी-भावना :- संवेगरंगशाला में असुर-निकाय के देवों की सम्पत्ति देनेवाली आसुरी-भावना का वर्णन निम्न पाँच प्रकार से किया गया है- १. बार-बार झगड़ा करना २. आसक्तिसहित तप करना ३. निमित्त-कथन करना ४. करुणा का अभाव और ५. अनुकम्पा का अभाव। इन पाँचों का विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि पहली भावनावाला हमेशा लड़ाई-झगड़े करने में रुचि रखता है, दूसरी भावना वाला आहारादि प्राप्त करने के लिए तप करता है, तीसरी भावनावाला अभिमान अथवा दूसरों के प्रति द्वेषवश गृहस्थ को भूत-भविष्य बतलाता है, चौथी भावनावाला त्रसादि जीवों पर करुणा नहीं करता है और पाँचवी भावनावाला दूसरों को दुःख से पीड़ित एवं भयभीत होते देखकर भी निष्ठुर हृदयवाला होता है। 579
५. सम्मोह-भावना :- संवेगरंगशाला के भावनाद्वार में स्व-पर को मोहित करनेवाली सम्मोह नामक अप्रशस्त-भावना का उल्लेख किया गया है। इसके भी पाँच भेद किए गए हैं, जो निम्न हैं -
१. उन्मार्ग-देशना :- सम्यग्ज्ञानादि को दोषपूर्ण बताकर उससे विपरीत मोक्षमार्ग का उपदेश करना उन्मार्ग-देशना है।
२. मार्गदूषण :- मोक्षमार्ग, अर्थात् सम्यक् ज्ञान, दर्शन, एवं चारित्र में स्थित मनुष्यों के दोषों को बताना मार्गदूषण-भावना कहलाता है।
३. मार्ग-विप्रतिपत्ति :- अपने स्वछन्द वितकों से मोक्षमार्ग को दूषित मानकर उन्मार्ग का अनुसरण करनेवाले व्यक्ति का अनुमोदन मार्ग-विप्रतिपत्ति-भावना है।
___४. मोह (मूढ़ता) :- अन्य धर्म एवं दर्शनों की पूजा-प्रतिष्ठा को देखकर मोहित होना मूढ़ता कहा गया है।
५. मोहजनन-भावना :- गैरिक, तापस, शाक्याभिक्षु, आदि के धर्म में श्रद्धा रखना, अथवा लोक में जिनकी पूजा और सत्कार होता है, उन धर्मदर्शनों के प्रति आदरभाव मोहजनन-भावना है।580
578 संवेगरंगशाला, गाथा ३८६१-३८६६. 579 संवेगरंगशाला, गाथा ३८६७-३८७२. 580 संवेगरंगशाला, गाथा ३८७३-३८८०.
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