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________________ 260/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री हास्यक्रिया-भावना :- विचित्र वेशभूषा एवं विकारी वचनों द्वारा स्व-पर को हँसना। परविस्मयकर-भावना :- मंत्र-तंत्र, आदि से जगत् को आश्चर्यचकित करना। २. किल्विषिक-भावना :- संवेगरंगशाला में देव-आयुष्य का बन्ध करनेवाली दूसरी किल्विषिक-भावना को भी पाँच भागों में बाँटा गया है- १. श्रुतज्ञान की अवज्ञा २. केवली भगवन्त की अवज्ञा ३. धर्माचार्य की अवज्ञा ४. साधुओं की अवज्ञा और ५. गाढ़ माया करना।76 इसके भी अनेक रूप हैं १. व्रत, प्रत्याख्यान, आदि की जो चर्चा एक ग्रन्थ में है, वही चर्चा दूसरे ग्रन्थों में भी है- ऐसा कहकर श्रुत का अपमान करना ही श्रुतज्ञान की अवज्ञा कहा जाता है। २. यदि वे सच्चे वीतराग हैं, तो पक्षपातयुक्त होकर केवल भव्य जीवों को ही धर्मोपदेश क्यों देते हैं?- इस तरह वीतरागियों की निन्दा करना केवली की अवज्ञा है। ___३. धर्माचार्यों के जाति, कुल, ज्ञान आदि की निन्दा करना, धर्मोचार्य की अवज्ञा कही जाती है। ४. साधुओं को एक क्षेत्र से सन्तोष नहीं होता है, इसलिए गाँव-गाँव घूमते हैं, इत्यादि अपशब्द कहकर सर्व साधुओं की निन्दा करना साधुओं की अवज्ञा है। ५. कपटवृत्ति, जीवन में दोहरापन, कथनी और करनी में अन्तर गाढ़ माया है। यह किल्विषिक-भावना का ही एक रूप है।577 ३. आभियोगिक-भावना :- विषयासक्ति के कारण वशीकरण-मन्त्र, आदि से स्वयं को भावित करना आभियोगिक-भावना है। यह भावना भी पाँच प्रकार की है। वे पाँच प्रकार निम्न हैं - १. कौतुक-भावना २. भूमिकर्म-भावना ३. प्रश्न-भावना ४. प्रश्नाप्रश्न-भावना और ५. निमित्त-भावना। अग्नि के अन्दर होम करके, औषधादि द्वारा अन्य को वश में करके, रक्षासूत्र से दूसरों की रक्षा करके, अंगूठे आदि में देव उतारकर दूसरों के प्रश्नों का उत्तर देकर, स्वप्न-विद्या, 576 सुयनाण केवलीणं धम्मायरियाण सव्वसाहूण। अव्वन्न भासणं तह य गाढ़माइल्लया इति।। संवेगरंगशाला, गाथा ३८५५. संविंगरंगशाला, गाथा ३८५५-३८५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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