SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 259 वीर्याचार में शिवगति के कारणभूत कार्यों में अपने वीर्य-पराक्रम को छिपानेरूप जिन अतिचारों का सेवन किया हो, उन्हें भी आलोचना करने के योग्य जानना चाहिए।572 जिनचन्द्रसरिकृत संवेगरंगशाला में वर्णित आलोचनाविधान द्वार में एवं आचार्य हरिभद्रसूरिकृत पंचाशकप्रकरण 573 में वर्णित आलोचना-विधि में समानता पाई जाती है, फिर भी पंचाशकप्रकरण मे प्रायश्चित्त-विधि की विस्तृत चर्चा की गई है, जबकि संवेगरंगशाला में प्रायश्चित्त-विधि की अधिक चर्चा नहीं की गई है। समाधिमरण में आसक्ति-विमुक्ति का उपाय-भावनाएँ : संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार ने प्रथम परिकर्मद्वार के चौदहवें उपद्वार में भावना का विवेचन करते हुए यह कहा है कि भावों की श्रेणी में चढ़ने के पश्चात् यदि भावों में स्थिरता नहीं रहे, तो पुनः जीव का पतन सम्भव है, इसलिए भावों में दृढ़ता लाने के लिए भावनाओं का पुनः-पुनः चिन्तन आवश्यक है। संवेगरंगशाला में भावना के दो प्रकार बताए गए हैं : १. अप्रशस्त-भावना और २. प्रशस्त भावना। उसके बाद पुनः अप्रशस्त-भावना के निम्न पाँच विभाग किए गए हैं - १. कन्दर्प २. किल्विषिक ३.आभियोगिक ४. आसुरी और ५. सम्मोह। 574 १. कन्दर्प-भावना :- अप्रशस्त भावना का प्रथम प्रकार कन्दर्प-भावना है। इसमें यह कहा गया है कि कामुक हास्यादि कर्दप-भावना के अन्तर्गत आते हैं। कौत्कुच्य, विस्मय, बड़ी आवाज से हँसना, दूसरों को हँसाना, कामवर्द्धक शब्द कहना, कामयाचना, कामुक उपदेश और कामवृत्ति की प्रशंसा, आदि कन्दर्प-भावना के भेद हैं।575 . कौत्कुच्य-भावना :- नेत्र, भृकुटी एवं अन्य अंगोपांग द्वारा स्वयं हंसे बिना दूसरों को हंसाना। द्रुतशीलत्व-भावना :- अंहकारवश सर्वकार्य शीघ्र-शीघ्र करना। विगरंगशाला, गाथा ५०४५-५०७२. पंचाशकप्रकरण, पृ. २५७. संवेगरंगशाला, गाथा ३८४५-३५४८. 575 संवैगरंगशाला, गाथा ३८४६-३८५३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy