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________________ 258/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री चारित्राचार- महाव्रत, आदि मूलगुण एवं पिण्डविशुद्धि आदि उत्तरगुणरूप तथा पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप चारित्राचार में जो अतिचार लगा हो, उनकी आलोचना करना चाहिए। साधु के मूलगुण धर्मरूपी कल्पवृक्ष के मूल (जड़) के समान हैं और उत्तरगुण उनकी शाखाओं के समान है। १. प्राणातिपातविरमणव्रत - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, सम्बन्धी-संघटन, परिताप और विनाश- ये प्रथम मूलगुण के अतिचार हैं। २. मृषावादविरमण-व्रत - क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य अथवा भय से असत्य वचन बोलना- ये दूसरे मूलगुण के अतिचार हैं। ३. अदत्तादानविरमणव्रत - मालिक द्वारा नहीं दिए जाने पर सचित्त, अचित्त या मिश्र द्रव्य का हरण करना। ४. मैथनविरमणव्रत - देव, तिर्यच या मनुष्य की स्त्रियों के भोग की मन से अभिलाषा करना, वचन से प्रार्थना करना और काया से स्पर्श, आदि करना। ५. परिग्रहविरमणव्रत - देश, कुल, स्वजन तथा वस्तुओं पर ममत्व रहा हो। ६. रात्रिभोजनविरमणव्रत - दिन में लाया हुआ भोजन रात में, रात में लाया हुआ दिन में और पूर्व दिन में लाया हुआ दूसरे दिन में- इस तरह चार प्रकार के रात्रिभोजन के अन्दर जो अतिचार सेवन किया हो, उन सबकी सम्यक् रूप से आचार्य के पास आलोचना करना चाहिए । उत्तरगण के अतिचार - अकल्प्य भोजन को ग्रहण करना, एषणा के सिवाय चार समितियों में प्रयत्न का अभाव, महाव्रतों की रक्षा करनेवाली पच्चीस भावनाओं अथवा बारह अनुप्रेक्षाओं का अनुभावन न करना। इस प्रकार रागादिवश होकर विवेक नष्ट होने से पिण्ड-विशुद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, अभिग्रह और तपरूप उत्तरगुणों में लगे अतिचारों की चारित्रविशुद्धि हेतु आलोचना करना चाहिए। अनशन आदि छः प्रकार के बाह्यतप एवं प्रायश्चित्त आदि छः प्रकार के आभ्यन्तर-तप में शक्ति होने पर भी जो प्रमाद के कारण अनाचरण किया हो, तो उन अतिचारों की आलोचना भी करने योग्य होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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