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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 257
महान् दोषों की भी शुद्धि आलोचना के द्वारा कर सकता है, क्योंकि शुद्धचारित्र का पालन करते हुए अप्रमत्त धीर-वीर साधु अपने शेषकों का क्षय करके अल्पकाल में केवलज्ञान प्राप्त करता है तथा केवलज्ञान प्राप्त करके उसी भव में शाश्वत सुख, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है।
इस तरह प्रायश्चित्त के फल को जानकर क्षपकमुनि अंहकार का त्याग कर, निरभिमानी हो, उत्कृष्ट आराधना-विधि के अनुसार आराधना करने की इच्छा करे। "हे धीर पुरुष! बैठते-उठते, चलते आदि क्रियाओं में जो भी अतिचार लगे हों, उसकी तू सम्यक् प्रकार से आलोचना कर, क्योंकि जैसे जहर का प्रतिकार नहीं करने से जहर का एक कण भी अवश्य प्राण ले सकता है, वैसे ही अल्प भी अतिचार प्रायः अनेक अनिष्ट फल को देनेवाला होता है।" इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में सूरतेजराजा का उदाहरण उपलब्ध होता है।571
१०. आलोचनीय दोषों का निर्देश :- साधक को ज्ञानाचार, आदि पाँच आचार सम्बन्धी सभी छोटे-बड़े अतिचारों की अच्छी तरह आलोचना करना चाहिए। आचार के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-ये पाँच भेद हैं। ज्ञानाचार के काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिनव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय- ये आठ प्रकार हैं। जैसे- स्वाध्याय के समय स्वाध्याय न करके अकाल में किया ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के उपकरण पुस्तकादि की उपचाररूप से विनय, बहुमान नहीं करना, तपपूर्वक अध्ययन नहीं करना, श्रतु का अपलाप, अर्थात् सत्य को छिपानेरूप कार्य करना, सूत्र व अक्षर जिस रूप में हों, उसी रूप में उन्हें नहीं लिखना या नहीं पढ़ना, सूत्रादि का अन्य अर्थ करना एवं सूत्र-अर्थ को अशुद्ध बोलना अथवा लिखना - इनमें से जो कोई भी अतिचार सूक्ष्म या स्थूल रूप से लगा हो, तो उनकी आलोचना करना चाहिए।
दर्शनाचार के निम्न आठ प्रकार - निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपवृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य एवं प्रभावना, जैसे- कभी प्रमादवश जिनवचनों में शंका की हो, अन्य दर्शन अथवा कर्मफल की आकांक्षा की हो, सदाचार के फल के प्रति शंका की हो, अन्य धर्मो का चमत्कार देखकर भ्रमित हुआ हो, स्वधर्मी भाइयों के गुणों की प्रशंसा न की हो, साधर्मिक को धर्म में स्थिर नहीं किया हो, साधर्मिक का प्रेमपूर्वक कार्य नहीं किया हो एवं श्रुतज्ञानादि से जैन-शासन की प्रभावना नहीं की हो आदि दर्शनाचार सम्बन्धी जो भी अतिचार लगे हों, तो उनकी आलोचना करना चाहिए।
571 संवेगरंगशाला, गाथा ५०६२-५१००.
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