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________________ 262 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री संवेगरंगशाला में कहा गया है कि संयतचारित्रवान् मुनि या समाधिमरण का साधक भी यदि इन अप्रशस्त - भावनाओं में से किसी भी प्रकार की भावना में प्रवृत्ति करता है, तो वह भवान्तर में देवयोनि में उत्पन्न होता है और वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके संसार में परिभ्रमण करता है, अतः चारित्र की मलिनता में हेतुभूत और दुर्गति को देनेवाली इन पाँचों अप्रशस्त भावनाओं से समाधिमरण के साधक को दूर रहना चाहिए । प्रशस्त - भावना :- संवेगरंगशाला में इसी प्रसंग में आगे प्रशस्त - भावना के पाँच भेदों का वर्णन निम्न रूप से प्रस्तुत किया गया है - १. तप-भावना २. श्रुत-भावना ३. सत्व - भावना ४. एकत्व - भावना और ५. धीरज - भावना । १. तप - भावना :- संवेगरंगशाला के अनुसार जिसने अपनी पाँचों इन्द्रियों को वश में कर लिया है- ऐसे जितेन्द्रिय साधक इन पाँचों इन्द्रियों को समाधिमरण ग्रहण करने में साधनरूप बनाते हैं। जिसने अपनी इन्द्रियों को दमन नहीं किया, अर्थात् जो इन्द्रिय-सुखों में आसक्त है तथा परीषहों से पराजित हुआ है - ऐसा साधक आराधनाकाल में व्याकुल बनता है। आचार्य यहाँ घोड़े के दृष्टान्त द्वारा यह प्रतिपादित करते हैं कि जिस घोड़े का लम्बे समय तक सुख से लालन-पालन किया हो और करने योग्य अभ्यास को नहीं सिखाया गया हो, ऐसा घोड़ा युद्ध के मैदान में अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता है, उसी तरह पूर्व - अभ्यास से रहित जीव अन्त समय में समाधि की इच्छा होने पर भी परीषहों को सहन करने में असमर्थ होता है, क्योंकि वह विषय - सुख को छोड़ नहीं पाता 581 २. श्रुत-भावना :- श्रुत का गहन ज्ञान होने से साधक आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रमण करते हैं। साधक विवेकपूर्वक तीनों योग से जिनाज्ञा का अनुसरण करता है और घोर परीषहों को भी हँसते-हँसते सहन कर लेता है तथा पथ - भ्रष्ट नहीं होता है। 582 ३. स्त्व-भावना :- सत्व-भावना की चर्चा करते हुए संवेगरंगशाला में यह कहा गया है कि शारीरिक और मानसिक-दुःख जब एक साथ आ जाते हैं, तब सत्व-भावना से युक्त जीव 'नरकादि पूर्व भवों में अनके बार भीषण दुःखों को भोगा है तथा इस जीव ने अनन्त बार बालमरण को प्राप्त किया है'- ऐसा विचारकर दुःखी नहीं होते हैं तथा मृत्यु आने पर घबराते नहीं है। जैसे- सुभट 581 संवेगरंगशाला, गाथा ३८८५-३८८६. 582 संवेगरंगशाला, गाथा ३८८६-३८६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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