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________________ 254/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री लगाता हो, तो गुरु की आज्ञा से आसन पर बैठकर फिर विनम्रतापूर्वक दोषों को यथार्थ रूप से निवेदन करे। ५. ऋजुभाव (सरलता) :- सदैव बालक के सदृश सरल हृदयवाला होकर साधक को आचार्य के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना चाहिए। ६. क्रमपूर्वक :- संवेगरंगशाला में आसेवनक्रम एवं आलोचनाक्रम-ऐसे दो प्रकार के क्रम कहे गए हैं। आसेवनक्रम, अर्थात् जिस क्रम से दोषों का सेवन किया, उसी क्रम से आलोचना करना चाहिए। आलोचनाक्रम, अर्थात् प्रथम सूक्ष्म (छोटे) दोष कहना, बाद में बड़े अपराधों की आलोचना करना। जिस प्रकार प्रायश्चित्त में वृद्धि हो, उस क्रम से कहना, अकुटिलता (अकपट) द्वारा दोषों का सेवन किया हो, कपट द्वारा, प्रमाद द्वारा, कल्पना से, यतनापूर्वक (कारण के उपस्थित होने पर जयणापूर्वक) कोई भी अपराध का सेवन किया हो, तो उन सर्व दोषों को यथाप्रकार से सेवन किया हो, तथाप्रकार से आलोचना करना चाहिए। ७. छःश्रवण :- संवेगरंगशाला में कहा गया है कि साधु को छ: कानों में सुनाई दे, इस प्रकार आलोचना करना चाहिए। प्रायश्चित्त करनेवाले (क्षपकमुनि) के दो कान, प्रायश्चित्त देनेवाले (निर्यापक-आचार्य) के दो कान एवं जिसकी साक्षी में प्रायश्चित्त करे, उसके दो कान- इस तरह कुल मिलाकर छ: कानों में श्रवण-योग्य आलोचना करना चाहिए। यदि साधु युवावस्था में आलोचना स्वीकार करता है, तो उसे आठ कानों में आलोचना करना चाहिए एवं वृद्धावस्था में साधु चार कानों के में आलोचना कर सकता है।568 ८. प्रायश्चित्त की विधि :- पूर्व में आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, आदि प्रायश्चित्त के दस भेद कहे गए हैं, उन्हीं का यहाँ उल्लेख किया गया है। इसमें जो अतिचार जिस प्रायश्चित्त से शुद्ध होता हो, उसे उसके योग्य जानना चाहिए। जैसे-कोई अतिचार आलोचनामात्र से शुद्ध होता है, तो काई प्रतिक्रमण करने से शुद्ध होता है। आलोचनारूप प्रायश्चित्त की चर्चा पूर्व में कर चुके हैं, अब प्रायश्चित्त के अन्य रूपों की चर्चा करते हैं। १. प्रतिक्रमणार्ह :- प्रायश्चित्त का दूसरा भेद प्रतिक्रमण है। साधक जिस क्रिया के द्वारा आत्म-निरीक्षण एवं पश्चाताप के द्वारा अपने किए हुए अपराधों एवं पापों का प्रक्षालण करता है, वह प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का अर्थ है- "पुनः आना"। प्रमादवश साधक का मन यदि शुभयोग से अशुभयोग में चला जाए, तो अशुभयोग से पुनः शुभयोग में आना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण से साधक 568 संवेगरंगशाला, गाथा ५०१८-५०४४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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