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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 255 पाप से निवृत्त होता है। उसके मन में पाप के प्रति घृणा होती है । असावधानी से जो भी स्खलना हुई हो, उन भूलों का वह परिमार्जन करता है। २. तदुभयार्ह :- प्रायश्चित्त का तीसरा भेद तदुभयार्ह है। जिस दोष की आलोचना एवं प्रतिक्रमण - दोनों करने से शुद्धि होती है, वह तदुभयार्ह है, जिस प्रकार पन्चेन्द्रिय आदि जीवों का संघट्ट (स्पर्श) आदि हो जाने पर उसका प्रतिक्रमण भी किया जाता है एवं आलोचना भी की जाती है। ३. विवेकार्ह :- विवेक, यानी त्याग अथवा छोड़ना । आधाकर्म, आदि आहार आ जाने पर उस आहार को सविधि परठना पड़ता है, तभी उस पाप से मुक्त हो सकते हैं। ४. व्युत्सर्गार्ह :- नदी, आदि को पार करने में तथा मार्ग, आदि में चलने से असावधानी के कारण यदि कोई दोष लग गया हो, तो कायोत्सर्ग कर उस दोष की विशुद्धि की जाती है । ५. तपार्ह :- जिस दोष की विशुद्धि के लिए आगमोक्त - विधि के अनुसार तप किया जाता है, वह तपाई है। इसमें आंयबिल आदि षण्मासिक तप का विधान है। ६. छेदार्ह :- छेद, अर्थात् काटना या कम करना । जिस प्रायश्चित्त में दोष की विशुद्धि के लिए दीक्षा - पर्याय का छेदन किया जाता है, वह छेदाई है। दोष की गुरुता व लघुता के अनुसार इसमें प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसमें मासिक, चातुर्मासिक व षण्मासिक तक प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रस्तुत प्रायश्चित्त के व्यवहार में यह परिणाम आता है कि जितने समय का छेद किया जाता है, उस अवधि में जो दीक्षित होता है, उसको वह नमन, आदि करता है । इस प्रायश्चित्त में प्रायश्चित्त लेने वाले के अहं पर सीधा प्रहार होता है, इसलिए यह प्रायश्चित्त अन्य तपों में कठिन है। ७. मूलाई :- छद्मस्थ-श्रमण कभी-कभी गुरुतर दोष का सेवन कर लेता है, जिससे उसका चरित्र नष्ट हो जाता है। ऐसे दोष की शुद्धि आलोचना, तप और छेद से नहीं हो सकती, अतः उसके लिए पुनः महाव्रत आरोपित किए जाते हैं, दीक्षा-पर्याय का पूर्ण छेदन कर नई दीक्षा दी जाती है। महाव्रत मूल है, इसलिए इस प्रायश्चित्त को मूल योग्य कहा गया है। अनवस्थाप्यार्ह :- जिस गुरुतर दोष की विशुद्धि के लिए अनवस्थापित होना पड़ता है, श्रमण-संघ से पृथक् होकर गृहस्थ- वेश धारण किया ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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