________________
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 253
आलोचना सदैव प्रशस्त क्षेत्रादि में ही करना चाहिए, अप्रशस्त क्षेत्रादि में नहीं,
जैसे
अप्रशस्त द्रव्य
अप्रशस्त- -क्षेत्र
अप्रशस्त-काल
चतुर्थी एवं एकादशी.
-
तुच्छ वृक्ष, तुच्छ धान्य के ढेर, आदि.
दग्ध घर, उजाड़ भूमि, आदि.
दग्धातिथि अमावस्या, दोनों अष्टमी, नवमी, षष्ठी,
सन्ध्या, रविवार, कुनक्षत्र, अशुभ योग- इन्हें अप्रशस्तकाल जानना चाहिए।
अप्रशस्त भाव- राग, द्वेष, प्रमाद, मोह, आदि के अप्रशस्तभाव जानना चाहिए। ये सभी स्वदोष हैं, इन अप्रशस्त द्रव्यक्षेत्रादि में आलोचना नहीं करना चाहिए | इसके विपरीत (प्रतिपक्षी) प्रशस्तद्रव्यादि में आलोचना करना चाहिए । प्रशस्त - द्रव्य :- क्षीरयुक्त वृक्ष, आदि के योग में।
प्रशस्त क्षेत्र :- गन्ने का क्षेत्र, अक्षत (चावल) का क्षेत्र, जिनमन्दिर, आदि स्थान में।
प्रशस्त - कालः- पूर्व में कही गई तिथियों के अतिरिक्त शेष तिथियों एवं सुनक्षत्र आदि में।
प्रशस्त-भाव :- प्रसन्न मन, ग्रह, लग्न, आदि सभी उच्च स्थान में हों, तब प्रशस्तभावों से युक्त होकर साधक को आलोचना करना चाहिए।
३. प्रशस्त - दिशा :- पूर्व अथवा उत्तर- दिशा में एवं तीर्थंकरादि जिस दिशा में विचरण करते हैं, अथवा जिस दिशा में जिनमन्दिर है, उस दिशा को आलोचना करने के लिए उत्तम जानना चाहिए । यदि आचार्य भगवन् पूर्वाभिमुख करके बैठे हों, तो आलोचनाकारक को उत्तराभिमुख होकर दाहिनी ओर बैठना चाहिए। यदि आचार्य उत्तराभिमुख बैठे हों, तो साधक को पूर्वाभिमुख करके बाईं ओर बैठना चाहिए। इसी तरह उपकारी आचार्य को पूर्व अथवा उत्तर- दिशा में सम्मुख बैठ कर आलोचना सुनना चाहिए।
Jain Education International
४. विनय :- अटूट श्रद्धा-भक्तिभाव से पूरित होकर गुरु को उत्तम आसन पर विराजमान करे, पश्चात् वन्दना करके दोनों हाथों को जोड़कर गुरु के सम्मुख आकर खड़ा हो जाए, फिर अपने दोषों को स्पष्ट उच्चारण से प्रकट करे । यदि साधु रोगादि से पीड़ित हो, अथवा अपने दोषों को कहने में अधिक समय
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org