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________________ 246/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री (रत्नत्रयी) के गुणों से युक्त हो, क्षमा, दान को धारण करनेवाला हो एवं मायाचार से रहित तथा अपश्चातापी हो। १. जाति-कुलसम्पन्न :- निन्दित कार्य करते नहीं हैं और किसी समय करते भी हैं, तो उसकी सम्यक् आलोचना करते हैं। २. विनयसम्पन्न :- स्वभाव से विनीत होने से पापों की स्वयं यथार्थ रूप में आलोचना करते हैं। ३. ज्ञानसम्पन्न-ज्ञानी पुरुष अपने अपराधों के घोर विपाकों को जानकर प्रसन्नता से आलोचना करते हैं। ४. दर्शनसम्पन्न :- अपराधों की आलोचना करके “मैं दोषों से शुद्ध हुआ"- ऐसी श्रद्धा करते हैं। ५. चारित्रसम्पन्न :- चारित्रगुणसम्पन्न जीव दोबारा दोषों का सेवन नहीं करते हैं तथा 'आलोचना किए बिना मेरे चारित्र शुद्ध नहीं हो सकते हैं'ऐसा समझकर सम्यक् आलोचना करते हैं। ६. क्षमाशील :- आचार्य के कठोर वचनों को श्रवण करके भी आवेश नहीं करते हैं एवं उनके द्वारा दिए गए प्रायश्चित्त को प्रसन्नतापूर्वक पूर्ण करते हैं। ७. दान्त :- इन्द्रियविषयों के विजेता होते हैं। ८. अमायाचारी :- पापों को छिपाते नहीं हैं। ६. अपश्चातापी :- अपने दोष को स्वीकार करके पश्चाताप नहीं करनेवाले होते हैं।560 संवेगरंगशाला की तरह स्थानांगसूत्र एवं भगवतीसूत्र में भी दस स्थानों से सम्पन्न अनगार ही अपने दोषों की आलोचना करने के योग्य होता है- ऐसा कहा गया है, 561 इसलिए संवेगी, अपश्चातापी, आदि गुणों से युक्त साधु को ही आलोचना देना चाहिए। प्रायश्चित्त लेकर मन में ऐसा विचार आना चाहिए कि मैं धन्य बना हूँ कि जिससे इस जन्म में ही आचार्यश्री ने मेरे दोषों को विशुद्ध कर दिया, अन्यथा परलोक में इन दुष्कृत्यों के भयंकर परिणाम (कष्ट) सहन करने 500 संवेगरंगशाला, गाथा ४६०१-४६१०. 561 (क) संवेगरंगशाला, गाथा ४६११. (ख) स्थानांगसूत्र १०,७ (ग) भगवतीसूत्र २५/१०७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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