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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 245 ३. टाज्ञा-व्यवहार :- अन्यत्र विराजमान गीतार्थ के पास गूढ़ कथन के द्वारा आलोचना करना आज्ञा-व्यवहार है। जंघाबल क्षीण होने पर अन्य देशों में रहे हुए आचार्यों के पास अगीतार्थ मुनि द्वारा गुप्त रूप से सूचना भेजकर गीतार्थ आलोचनादाता से शुद्ध प्रायश्चित्त लेना ही आज्ञा व्यवहार है। ४. धारणा-व्यवहार :- आचार्य आदि ने किसी अपराध में अन्य को जिस प्रकार प्रायश्चित्त दिया गया था, उसका अवधारण कर, अर्थात् गुरु द्वारा दिए गए प्रायश्चित्तों को स्मृति में रखते हुए शिण द्वारा तथानिध अपराध में उसी प्रकार का प्रायश्चित्त देना ही धारणा व्यवहार है। ५. जीत-व्यवहार :- नियुक्तिपूर्वक सूत्रार्थ को गम्भीरता से जाननेवाला गीतार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जो प्रायश्चित्त प्रदान करता है, वह जीत-व्यवहार कहलाता है।558 उपर्युक्त पाँच प्रकार के व्यवहार को जाननेवाले ही प्रायश्चित्त देने के अधिकारी हैं। इन पाँचों व्यवहारों में से किसी एक व्यवहार के आधार पर गीतार्थ ही प्रायश्चित्त देने का अधिकारी है, अगीतार्थ को प्रायश्चित्त देने का सर्वथा निषेध संवेगरंगशाला में आगे अयोग्य के पास आलोचना लेने से होनेवाली हानि का वर्णन दृष्टान्त द्वारा किया गया है-जिस तरह अकुशल चिकित्सक के द्वारा की गई चिकित्सा से रोगी पुरुष के रोग में अभिवृद्धि होती है, साथ ही वह मृत्यु का कारण भी बनता है, उसी तरह अकुशल आचार्य के द्वारा दी गई मिथ्या-आलोचना से साधक के दोष में अभिवृद्धि होती है, उससे चारित्र नष्ट होता है और आराधना समाप्त हो जाती है। इस तरह साधक विराधक हो, अन्य जन्मों में निन्दा का पात्र बनता है, कुयोनि में उत्पन्न होता है तथा दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है। कहा है कि अगीतार्थ आचार्य व्यवस्थित प्रायश्चित्त नहीं दे सकता, न्यूनाधिक देता है। इससे प्रायश्चित्त देनेवाले और लेनेवाले-दोनों ही संसार में डूबते हैं।559 ३. आलोचना करनेवाले का स्वरूप :- आलोचना वही व्यक्ति कर सकता है, जो जाति, कुल एवं विनय से सम्पन्न हो। ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र 550 संवेगरंगशाला, गाथा ४८८७-४८६७. 559 संवेगरंगशाला, गाथा ४८६८-४६००. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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