SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 244 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री लेने से, आदानभण्डमत्त निक्षेपणा-समिति में प्रतिलेखन, प्रमार्जन बिना पात्र, उपकरण, आदि लेने-रखने से एवं पारिष्ठापनिका-समिति में उच्चार, प्रश्रवण, आदि को अशुद्ध भूमि में वैसे-तैसे परठने से- इस तरह पाँच समिति में तथा तीन गुप्ति में प्रमाद के कारण जो कोई भी अतिचार लगा हो, उन सबकी आलोचना अवश्य करना चाहिए। इस प्रकार तपाचार एवं वीर्याचार में भी जो अतिचार लगे हों, उनकी सम्यक्प से आलोचना करना चाहिए। इस प्रकार मुनि को भी अपनी मुनिचर्या में जो दोष लगे हों, उनकी आलोचना करने के पश्चात् ही समाधिमरण स्वीकार करना चाहिए। २. आलोचना किसके समक्ष करना चाहिए? :- जिस प्रकार रोगी पुरुष अपने रोगों को किसी कुशल चिकित्सक के समक्ष ही प्रकट करता है, उसी तरह साधक को भी अपने दोष कुशल आचार्य के समक्ष ही प्रकट करना चाहिए। प्रायश्चित्तदाता को शास्त्रों का जानकार, अप्रमादी, समदृष्टिवान् एवं दीर्घदृष्टा होना चाहिए। ऐसे आचार्यादि के समक्ष अपने भावशल्य को बाहर निकालना चाहिए। संवेगरंगशाला में प्रायश्चित्त देने के दो आधार कहे गए हैं - १. आगमव्यवहार एवं २. श्रुतव्यवहार। 556 परवर्तीकाल में आज्ञा-व्यवहार, धारणा-व्यवहार एवं जीतव्यवहार को भी प्रायश्चित्त का आधार माना गया। इसी तरह प्रवचनसारोद्धार में भी प्रायश्चित्त के पाँच आधार बताए गए हैं।557 आलोचना के पाँच आधार (व्यवहार) : १. टागम-व्यवहार :- आगम, यानी वस्तु-स्वरूप का बोध करानेवाला ज्ञान एवं व्यवहार, अर्थात् प्रवृत्ति। आगम के अनुसार प्रवृत्ति आगम-व्यवहार है। १.केवलज्ञानी २. मनःपर्यवज्ञानी ३. अवधिज्ञानी ४. चौदहपूर्वी ५. दसपूर्वी और नौपूर्वी-ये छः आचार्य आगम-व्यवहारी कहे जाते हैं। २. श्रुत-व्यवहार :- महानिशीथ, जीतकल्प, आचारप्रकल्प, आदि छेदसूत्रों के आधार पर होनेवाला व्यवहार श्रुत-व्यवहार है, इन्हें धारण करनेवाले श्रुत-व्यवहारी हैं। वे इन ग्रन्थों को आधार मानकर प्रायश्चित्त का विधान करते संवेगरंगशाला, गाथा ५०६३-४०६६. सवैगरंगशाला, गाथा ४८८५-४८८६. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ८५४, द्वार १२६. 557 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy