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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 241
आलोचना :- अपने दोषों को अत्यन्त सरलता से आचार्य के समक्ष प्रकट करना ही आलोचना है। आलोचना स्व निन्दा है। पर निन्दा करना सरल है, परन्तु स्वयं के दुष्कृत्यों को जानकर उनकी निन्दा करना कठिन ही नहीं, बल्कि कठिनतम है। " जिसका मन बालक के सदृश सरल होता है, वही अपने दोषों को प्रकट कर सकता है। 550 संवेगरंगशाला के आलोचनाविधानद्वार में जिनचन्द्रसूरि लिखते हैंरत्नत्रयी की साधना हेतु क्षपक परगण में आचारवान् आदि गुणों से युक्त निर्यापक की शरण को स्वीकार करता है। इस तरह वह परगणसंक्रमण कर वहाँ आलोचना करके शल्यरहित होकर अन्तिम आराधना द्वारा अपनी आत्मा को शुद्ध करने का प्रयत्न करता है। यदि किसी कारणवश वह क्षपक निर्यापक- आचार्य के पास अपने दुष्कृत्यों की आलोचना नहीं करता है, तो अपनी आत्मा को शुद्ध नहीं कर पाता है और परिणामस्वरूप संसार से भी मुक्त नहीं हो पाता है ।
अतः, साधक के भावों की विशेष शुद्धि के लिए आलोचना- विधान में यह निरूपित किया गया है कि आए हुए क्षपक को निर्यापक- आचार्य अपने मधुर वचनों से गण के समक्ष इस प्रकार कहते हैं- हे भद्र! जिनाज्ञा के अनुरूप संयम ( चारित्र) को ग्रहण करके तूने काय एवं कषाय को कृश किया है, सर्व कर्त्तव्यों का भलीभांति पालन किया है, गुरुसेवा में सदैव तत्पर रहा है। इस तरह तू चारित्रिक गुणों का आकर (खान) है। ऐसा दुर्लभ चारित्र बिना पुण्य के प्राप्त नहीं होता है । उस चारित्र को तूने प्राप्त किया है।
अतः हे सुविहित क्षपक! अब तुझे इस देह के प्रति ममत्वभाव एवं अभिमान का विशेष रूप से त्याग करना है। इन्द्रिय, कषाय, गारव एवं मोहरूपी सैन्य का पराभव करना है। हे आत्महितेच्छु ! यदि तेरे भीतर अल्प भी दुष्कृत्यरूप दोष रहा हुआ हो, तो उस दोष की शीघ्र आलोचना कर ले। इसमें ही तेरी आत्मा का कल्याण है।
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संवेगरंगशाला में आलोचना के दस द्वारों का विवरण किया गया है, जो इस प्रकार है। १. आलोचना कब और किसके समक्ष की जाए, जिसके समक्ष आलोचना की जाए, वह कैसा हो २. आलोचना करनेवाले का स्वरूप ३. आलोचना के दस दोष ४. आलोचना नहीं करने से होनेवाले दोष ५. आलोचना के गुण ६ . आलोचना दूसरे की साक्षी में करें ७. आलोचना की विधि ८. आलोचना की सात मर्यादाएँ ६. प्रायश्चित्त - विधि एवं १०. आलोचना का फल |
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ओ नियुक्ति, ८०१
551 संवेगरंगशाला, गाथा ४८७१-४८७६.
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