________________
240 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
क्षपक की आराधना का मूल कर्तव्य आलोचना और प्रायश्चित्त :
पूर्व में तप के दो भेद कहे गए हैं, उनमें से आभ्यन्तर-तप का प्रथम उपविभाग प्रायश्चित्त कहा गया है। धर्मसंग्रह में प्रायश्चित्त का अर्थ बताते हुए कहा है- "प्रायः पापंविनिर्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम्।" ।
___ अर्थात् पाप का विशोधन करने की क्रिया का नाम प्रायश्चित्त है। 'प्रायः' अर्थात् अपराध एवं 'चित्तं', अर्थात् शुद्धि। जिस प्रक्रिया से अपराध की शुद्धि हो, वह प्रायश्चित्त है।545 प्राकृत-भाषा में प्रायश्चित्त के लिए "पायच्छित" शब्द आता है, वहाँ “पाय" का अर्थ पाप होता है। जो पाप का छेदन करता है, वह पायच्छित है।546
___ वैसे जैनधर्म में प्रायश्चित्त शब्द का जो अर्थ है, वह अर्थदण्ड शब्द से भिन्न है। प्रायश्चित्त और दण्ड के स्वरूप में भिन्नता है। प्रायश्चित्त में साधक अपने दोषों को अपनी इच्छा से गुरु के समक्ष प्रकटकर उनकी शुद्धि हेतु दण्ड की याचना करता है। इसके विपरीत दण्ड को व्यक्ति अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि विवशता से स्वीकार करता है। उसके मन में दुष्कृत के प्रति किसी भी प्रकार ग्लानि नहीं होती है। सामान्य अपराधी अपराध को स्वेच्छा से नहीं, किन्तु दूसरों के दबाव में स्वीकार करता है। इस तरह दण्ड ऊपर से आरोपित किया जाता है, जबकि प्रायश्चित्त अन्तर्हृदय से ग्रहण किया जाता है, इसलिए राजनीति में दण्ड का विधान है, तो धर्मनीति में प्रायश्चित्त का विधान है।
संसार में व्यक्ति अनेक प्रकार की गलतियाँ करता है। गलतियों (भूलों) एवं उनकी परिस्थितियों के अनुसार प्रायश्चित्त के भी विविध भेद किए गए हैं। भगवतीसूत्र 547 एवं स्थानांगसूत्र 548 में प्रायश्चित्त के दस प्रकार बताए गए हैं, जबकि तत्त्वार्थसूत्र-49 में पारांचिक को छोड़कर प्रायश्चित्त के नौ भेद किए गए हैं। प्रायश्चित्त के दस भेद इस प्रकार हैं :
१. आलोचनार्ह २. प्रतिक्रमणार्ह ३. तदुभयार्ह ४. विवेकार्ह ५. व्युत्सर्गार्ह ६. तपार्ह ७. छेदार्ह ८. मूलार्ह ६. अनवस्थाप्याह और १०. पारांचिकाह।
545 (क) धर्मसंग्रह अधिकार-३, (ख) राजवार्तिक ६/२२/१. 546 पंचाशक सटीक विवरण, १६/१३. 547 भगवतीसूत्र २५/७. 548 स्थानांगसूत्र स्थान १०. 549 तत्त्वार्थसूत्र ६/२२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org