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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 239 ३. भिक्षाचारी - अभिग्रह, आदि के साथ विधिपूर्वक भिक्षा ग्रहण करना। ___४. रस-परित्याग - प्रणीतः स्निग्ध, एवं स्वादिष्ट भोजन का त्याग। ५. कायक्लेश - शरीर को विविध आसन, आदि के द्वारा कष्ट-सहिष्णु बनाकर साधना करना तथा उसकी चंचलता कम करना। ६. संलीनता - शरीर, इन्द्रिय, मन, वचन तथा कषाय आदि का संयम करने हेतु एकान्तस्थान में रहना। आभ्यन्तर-तप के छः प्रकार निम्नानुसार हैं : १. प्रायश्चित्त - दोष-विशुद्धि हेतु सरल हृदय से प्रायश्चित्त करना। २. . in x विनय - गुरुजनों के प्रति भक्ति, आदर एवं बहुमान प्रदर्शित करना। वैयावृत्य - गुरु, संघ, रोगी, बाल, आदि की सेवा करना। स्वाध्याय - शास्त्रों का अध्ययन, अनुचिन्तन एवं मनन करना। ध्यान - मन को एकाग्र करके शुभध्यान में लगाना। व्युत्सर्ग - कषाय आदि का त्याग करना, शरीर की ममता को छोड़कर उसे साधना में स्थिर करना तथा संलेखना के समय स्वगण, आदि का भी परित्याग करना। इस तरह जैन धर्म मे तप का सही स्वरूप वर्णित किया गया है। साधक को अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार तप करना चाहिए। उत्तराध्ययन, 542 भगवतीसूत्र,543 स्थानांगसूत्र,544 आदि अनेक ग्रन्थों में तप के विविध भेदों की चर्चा की गई है। si w 542 उत्तराध्ययनसूत्र, ३०/८. 543 भगवतीसूत्र २५/७. 544 स्थानांगसूत्र दशमस्थान/सूत्र ७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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