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________________ 238 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री है। 538 "जो साधक साधना में श्रम करता है, तप करता है, तप से शरीर को क्षीण करता है, जो अपने ही श्रम से उत्कर्ष की प्राप्ति करता है, वह श्रमण है।539 वस्तुतः, श्रमण शब्द तपस्वी का वाचक है। जैन-श्रमण कठिन तप का जीवन्त प्रतीक है, तप ही उसका धर्म है, वह आत्मसाधना के लिए, अन्तरात्मा से परमात्मा बनने के लिए और जन से जिन बनने के लिए कठोर श्रम करता है। भगवान् ऋषभदेव ने छद्मस्थ-अवस्था में एक हजार वर्ष तक और भगवान् महावीर ने बारह वर्ष और तेरह पक्ष तक उत्कृष्ट तप की साधना की थी।540 तप जीवनोत्थान का प्रशस्त-पथ है। तप की उत्कृष्ट आराधना और साधना से तीर्थकर जैसे गौरवपूर्ण पद की भी उपलब्धि होती है। शब्द-रचना की दृष्टि से तप शब्द 'तप्' धातु से बना है, जिसका अर्थ 'तपना' है। जो आठ प्रकार के कर्म को तपाता हो, उन्हें नष्ट करने में समर्थ हो, वह तप है। 541 समाधिमरण के आराधक का मुख्य लक्ष्य तप के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा या क्षय कर मुक्ति प्राप्त करना है। तप के प्रकार : जैन-आगम-साहित्य में तप को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया गया है। प्रथम बाह्य-तप एवं दूसरा आभ्यन्तर-तप। जिस तप में शारीरिक-क्रिया की प्रधानता होती है और जो अपने बाहूय-रूप में दूसरों को दृष्टिगोचर होता है, वह बाह्य-तप है। जिस तप में मानसिक-क्रिया की प्रधानता होती है, अन्तर्वृत्तियों की विशेष परिशुद्धि होती है और जो मुख्य रूप से बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा न रखने के कारण दूसरों को दिखाई नहीं देता है, वह आभ्यन्तर-तप है, किन्तु बाह्य और आभ्यन्तर- दोनों ही प्रकार के तपों का लक्ष्य आत्मशोधन ही है। बाह्य-तप एवं आभ्यन्तर-तप दोनों के छ:-छ: प्रकार हैं, जिनमें बाह्य तप के छ: प्रकार निम्न हैं : १. २. अनशन - आहार का त्याग। ऊनोदरी - आहारादि की मात्रा में कमी। 539 संत्रत 538 दशवकालिकवृत्ति - १/३ संत्रकृतांग १/१/६/१रीलांगटीका पत्र २६३. 540 (क) आवश्यकनियुक्ति ५२६-५३५, (ख) महावीरचरियं (गुणचन्द्र), ७/१८, पृ. २५०. 541 (क) आवश्यक (मलयगिरि) खण्ड २, अध्याय १, (ख) निशीथचूर्णि ४६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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