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________________ 242 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री १. आलोचना कब करना चाहिए? :- जिसके पैर में कांटा लगा हो, वह मार्ग में जिस तरह सावधान या अप्रमत्त होकर चलता है, उसी तरह साधक को भी अप्रमत्त होकर यतनापूर्वक सम्पूर्ण क्रियाएँ करना चाहिए। वैसे तो साधक अप्रमत्त होकर ही संयम आराधना करता है, फिर भी कर्मोदय वश मुनि-आचार, अथवा व्रतों में दोष लग जाते हैं। उन दोषों की शुद्धि हेतु आलोचना (मिथ्या-दुष्कृत्य) करना चाहिए। यदि किसी कारणवश कोई अपराध कहना भूल गया हो, तो उस अपराध की आलोचना भी पाक्षिक अथवा चातुर्मासिक या वार्षिक-प्रतिक्रमण के दिन अवश्य कर लेना चाहिए। इस तरह आलोचना का अवसर प्राप्त होने पर प्रमत्त एवं अप्रमत्त- दोनों प्रकार के साधुओं को अपने पापों का प्रायश्चित्त करना चाहिए।52 आलोचना किसकी :- संवेगरंगशाला में कहा गया है कि आराधना में उद्यमशील बने उत्तम साधक को दुर्ध्यान के अधीन बनकर ऐसा चिन्तन नहीं करना चाहिए कि मैंने अनेक आचार्यों के पास अपने पापों की आलोचना कर ली है एवं उनके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त भी कर लिए हैं, सर्वक्रियाओं को सावधानीपूर्वक आचरण करने से अब मुझे आलोचना करने की आवश्यकता नहीं है। गृहस्थ-उपासक को भी अपने व्रतों में लगे हुए सूक्ष्म अतिचारों की भी आलोचना करना चाहिए। संवेगरंगशाला में कहा गया है कि देशचारित्र स्वीकार करनेवाले श्रावक को दोष लगते ही हैं, क्योंकि वह सर्वविरति नहीं है, जैसे-प्रथम व्रत में वह छःकाय जीवों की विराधना से विरत नहीं होता है, मात्र त्रसकाय के जीवों की हिंसा से विरत होता है। एकेन्द्रिय जीवों की सम्यक् यतना नहीं कर पाने से इन जीवों को परिताप, दुःख, आदि देने से जो अतिचार लगा हो, उसे आचार्य के पास प्रकट करे। इसी तरह दूसरे व्रत मृषावाद विरमण में अभ्याख्यान, आदि, अदत्तादान-विरमण में दृष्टिबन्धन, आदि, मैथुन विरमण में स्वप्न में भी परस्त्री के संग क्रीड़ा या अंगस्पर्श या प्रेम, विवाह, आदि जो कुछ हुआ हो, उन सभी अतिचारों की आलोचना करे। परिग्रह-विरमण में धन-धान्यादि नौ प्रकार के परिग्रह, परिमाण में दिशिपरिमाणव्रत में मर्यादा से अधिक भूमि में स्वयं जाने से या दूसरों को भेजने से या क्षेत्रादि का उल्लघंन करने से, उपभोग-परिभोग-व्रत में अनन्तकाय, बहुबीज, आदि का भोजन करने से तथा कर्मादानों में अंगारकर्म, आदि पापकर्म करने से, अनर्थदण्डव्रत में पाँच प्रकार के प्रमाद-सेवन, पापोपदेश, हिंसक शस्त्रादि प्रदान किया हो, या दुर्ध्यान किया हो, तो उनकी सम्यक् आलोचना करना चाहिए। 552 संवेगरंगशाला, गाथा ४६७७-४८८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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