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मिथ्यात्व का क्षयोपशम होने पर भी मुश्किल से ( दुःख से ) सम्यक्त्व से प्रीति करता है। मिथ्यात्व संसार-परिभम्रणरूप वृक्ष का बीज है, इसलिए आत्मार्थी को उसका त्याग करना चाहिए। हे सुविहित ! यह मिथ्यादर्शनशल्य वस्तु का विपरीत बोध करानेवाला है, सद्धर्म को दूषित करनेवाला और संसार - अटवी में परिभ्रमण करानेवाला है, इसलिए मन-मन्दिर में सम्यक्त्वरूप दीपक को प्रकाशित कर, जिससे मिथ्यात्वरूप प्रचण्ड पवन तुझे विचलित न कर सके, तेरे ज्ञानरूपी दीपक को बुझा न सके। इस प्रसंग पर इसमें जमाली की कथा उपलब्ध होती है। 523
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स्थानांगसूत्र, आराधनासार या पर्यन्ताराधना 25 एवं प्रवचनसारोद्धार में अठारह पापस्थानकों के नामों का उल्लेख मिलता है। प्रवचनसारोद्धार में अरति-रति को पापस्थानक में नहीं माना है, परन्तु उसके स्थान पर रात्रिभोजन को पापस्थानक माना है, जबकि संवेगरंगशाला एवं स्थानांगसूत्र - दोनों में रात्रिभोजन को पापस्थानक नहीं माना है एवं अरति - रति को पापस्थानक माना है।
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 233
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इससे यह फलित होता है कि संवेगरंगशाला में निर्यापक आचार्य क्षपक मुनि को इन अठारह पापस्थानकों का स्वरूप बताते हुए इन पापों के सेवन से बचने के लिए कहते हैं। जो मुमुक्षु उपर्युक्त अठारह पापस्थानकों का त्याग करता है एवं गुणों का चिन्तन और मनन करता है, वह मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्तकर आत्मा में स्वानुभव करने लगता है। इस प्रकार ऐसा मुमुक्षु पवित्र मन और वचन को धारण कर अन्त में सम्यग्दर्शन आदि उत्कृष्ट गुणों के द्वारा निर्वाण - पद प्राप्त करता है।
प्राचीन आचार्यविरचित आराधनापताका के सत्ताइसवें पापस्थान व्युत्सर्जनद्वार में भी अठारह पापस्थानों के त्याग का निरूपण एवं अठारह पापस्थानों के त्याग के सम्बन्ध में अठारह दृष्टान्तों का निरूपण मिलता है। समाधिमरण में की जाने वाली तप आराधना की विधि :
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संवेगरंगशाला के संलेखना -द्वार में समाधिमरण के साधक के लिए आराधना करने की विधियाँ बताई गईं हैं। वह आराधना भावों की शुद्धि के बिना नहीं होती है। भावों की शुद्धि रागादि के नाश के बिना नहीं होती है। रागादि का
523 संवेगरंगशाला गाथा ६४७३-६५०८.
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स्थानांगसूत्र स्थानप्रथम / ६१-१०८.
525 पर्यन्ताराधना / आराधनासार, पृ. १७२/२२-२३.
526 प्रवचनसारोद्धार, १३५११३५३.
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प्राचीन आचार्य विरचित आराधनापताका, ५२२-५३५.
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