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232 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री का कारण है। जिनेश्वर भगवान् ने तंदुलवयालिय ग्रन्थ में कहा है - जो सदा पर-निन्दा करता है,
आठ मदों में अति प्रसन्न होता है, अन्य की लक्ष्मी को देखकर ईर्ष्या करता है, वह सकषायी हमेशा दुःखी होता है। कुल, गण एवं संघ से बाहर किए गए ऐसे साधु को देवलोक में देवों की सभाओं में बैठने का स्थान नहीं मिलता है। संयम में उद्यमशील साधु को भी १. आत्म-प्रशंसा २. परनिन्दा ३. जीभ की लोलुपता ४. जननेन्द्रिय-लोलुपता और ५. कषाय-ये पांचों संयम से भ्रष्ट करते हैं, इसी कारण से मोक्षाभिलाषियों को पर-परिवाददोष का सर्वथा त्याग करना चाहिए। इस प्रसंग पर ग्रन्थ में सुभद्रा की कथा निर्देशित की गई है।
१७. माया-मृषावाद :- संवेगरंगशाला में जिनचन्द्रसूरि माया-मृषावाद की परिभाषा को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करते हैं-अत्यन्त क्लेश के परिणाम से उत्पन्न हुए वचन को माया कहते हैं एवं कुटिलता से युक्त मृषावचन को माया-मृषावाद या माया-दोष कहते हैं। यद्यपि दूसरे एवं आठवें पापस्थानक में मृषा एवं माया दोष का वर्णन किया गया है, फिर भी मनुष्य दूसरों को ठगने में चतुर, वाणी द्वारा पाप में प्रवृत्ति करता है, इस कारण इस पापस्थान को अलग से कहा गया है। माया मृषावचन बोलने से मनुष्य अपकीर्ति को प्राप्त करता है, विनय का नाश करता है, इसलिए बुद्धिशाली मनुष्य मायामृषादोष का सदैव त्याग करता है। यहाँ जीव को समझाते हुए यह कहा गया है कि मस्तक से पर्वत को तोड़ना, आत्मा को करवत से काटना, यम के मुख में प्रवेश करना, आदि कार्य करना, परन्तु निमेषमात्र काल जितना भी माया-मृषावाद मत करना। क्योंकि माया से युक्त मृषावाद अनन्त भवों तक भंयकर फल देनेवाला होता है, इसलिए जीव को इस पापस्थानक का त्याग करना चाहिए। इस प्रसंग पर कूट तपस्वी की कथा मिलती
१८. मिथ्यादर्शनशल्य :- विपरीत दृष्टि या विपरीत दर्शन होना। जैसे एक साथ दो चन्द्र के दर्शन होना मिथ्यादर्शन है, वैसे ही विपरीत दृष्टि को मिथ्यादर्शन कहा है। यह शल्य के समान दुःख देनेवाला होने से मिथ्यादर्शनशल्य कहा जाता है। शल्य दो प्रकार के होते हैं- १. द्रव्य शल्य - तलवार, भाला, आदि शस्त्र एवं २. भावशल्य-मिथ्यादर्शनशल्या यह मिथ्यादर्शनशल्य दिग्भ्रमित करनेवाला है, आँखों पर बंधी हुई पट्टी के समान है, जन्म से अन्धे के सदृश है, जगत् में परिभ्रमण कराने वाला चक्र है। अनादिकाल से मिथ्यात्व-भावना से मूढ़ बना जीव
527 संवेगरंगशाला, गाथा ६३७७-६३६६. 522 संवेगरंगशाला, गाथा ६४३८-६४५३.
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