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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 231 आधीन बना जीव आलसी, व्याकुल एवं गृद्ध बनता है, इहलोक एवं परलोक के कार्य करने में प्रमादी बनता है। ऐसे जीव को किसी भी कार्य में उत्साहित करने पर भी वह उत्साही नहीं बनता है। इस तरह संसार भावना का चिन्तन करते हुए जीव को असंयम में अरति एवं संयम में रति पैदा करना चाहिए। इस प्रसंग में क्षुल्लक कुमार की कथा वर्णित है।519 १५. पैशुन्य :- गुप्त बात को प्रकाशित करना अर्थात् किसी की सत्य या असत्य बात की चुगली करना पैशुन्य कहलाता है। चुगली करनेवाले को इस लोक में "यह चुगलखोर है"-ऐसा कहा जाता है। मित्रता तब तक ही टिकती है, जब तक बीच में चुगलखोर नहीं आता है अर्थात् चुगलखोर चुगली करके मित्रता का सम्बन्ध खत्म कर देता है। चुगलखोररुपी भंयकर कुत्ता रुके बिना लोगों के पीठ पीछे भौंकता हुआ हमेशा कान को खाता है, अर्थात् दूसरे के कान को भरता है। चुगलखोर व्यक्ति सज्जनों के संयोग से भी गुणवान् नहीं होता है। संवेगरंगशाला में कहा गया है कि इस जन्म में मात्र एक पैशुन्य दोष हो, तो अन्य दोष-समूह से कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि यह अकेला ही उभयलोक को निष्फल करने में समर्थ है। पैशुन्य-दोष से जीव माया, असत्य, दुर्जनता, निर्धनता आदि अनेक दोषों का भी सेवन करता है। दूसरे के मस्तक का छेदन करना एक बार हितकर होगा, किन्तु दूसरों की चुगली करना जीव के लिए हितकर नहीं है, क्योंकि मस्तक-छेदन से एक भव में ही दुःख सहन करना पड़ता है, किन्तु पैशुन्य-दोष से अनेक भवों में दुःख सहना पड़ता है, इसलिए आत्मार्थी को पैशुन्य-दोष का त्याग करना चाहिए। इस सन्दर्भ में इस ग्रन्थ में सुबन्धु और चाणक्य की कथा वर्णित है। 520 १६. पर-परिवाद :- ईर्ष्यावश अन्य के दोषों को लोगों के समक्ष प्रकट करना ही पर-परिवाद कहलाता है। मत्सर (ईर्ष्या) के कारण मनुष्य दूसरों के द्वारा किए गए उपकार, स्नेह, सज्जनता, सत्कर्म, आदि की अवमानना करता है और हमेशा दूसरा कैसे चलता है? कैसा व्यवहार करता है? क्या विचार करता है? क्या कहता है, अथवा क्या करता है? इस तरह दूसरे के छिद्र देखता रहता है। मनुष्य जैसे-जैसे पर-परिवाद करता है, वैसे-वैसे नीचता को प्राप्त करता है, तिरस्कार का पात्र बनता है, गुणों का नाश करता है। इस तरह पर परिवाद अनर्थ एवं अमंगल 519 संवेगरंगशाला, गाथा ६२७०-६२८५. 520 संवेगरंगशाला, गाथा ६३२७-६३४०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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