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________________ 230 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री द्वारा कहे गए धर्मोपदेश को भी दोषयुक्त मानता है। द्वेषी व्यक्ति द्वेषरूपी दावानल । के योग से बार-बार जलता है एवं समतारूपी वर्षा के जल से पुनः नया संजीवन प्राप्त करता है। इस ग्रन्थ में धर्मरुचि अणगार के उदाहरण से यह समझाया गया है कि द्वेष से चारित्र अशुद्ध होता है एवं संवेग से चारित्र शुद्ध होता है।516 १२. कलह :- संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार ने कलह की परिभाषा में कहा है कि क्रोधाविष्ट मनुष्य के वाग्युद्धरूप वचन ही कलह है। यह शारीरिक एवं मानसिक-सुखों का शत्रु है। कलह मन को कलुषित करनेवाला है, वैर-परम्परा को बढ़ाने वाला है, धन का विनाश कर दरिद्रता प्रदान करनेवाला है एवं अविवेक का फल है। कलह से जीव अनेक भवों में अति दुःसह दुर्भाग्य को प्राप्त करता है एवं धर्म का नाश करते हुए पाप का विस्तार करता है। व्याकरणों में इसे इस प्रकार कहा है- “कलं हनन्ति इति कलह", अर्थात् जो सौन्दर्य, आरोग्य, सन्तोष एवं बुद्धि का नाश करे, वह कलह है। यह शरीर में उत्पन्न हुए फोड़े के समान दुःख प्रकट करनेवाला है, इसलिए हे धीर! कलह को त्याग कर, शुभ से राग कर एवं परस्पर कलह न हो, वैसा कार्य कर। इस सन्दर्भ में यहाँ हरिषेण की कथा वर्णित है।517 १३. अभ्याख्यान :- दोष के अभाव में भी दोष का आरोपण करना ही अभ्याख्यान है। अभ्याख्यान स्व, पर एवं उभय के मन में द्वेष पैदा करता है। इस ग्रन्थ में कहा गया है कि अभ्याख्यान के परिणामवाला पुरुष कौन-कौन से पापों का बन्ध नहीं करता है, अर्थात् वह पुरुष पूर्व में कहे गए सभी दोषों का बन्ध करता है। यद्यपि अभ्याख्यान देने का पाप अति अल्प हो, तो भी एक बार भी दिया हुआ जघन्य से दस गुना फल देनेवाला होता है एवं तीव्र-तीव्रतर प्रद्वेष करने से तो सौ गुना, हजार गुना, लाख गुना, करोड़ गुना आदि विपाक देनेवाला होता है। इसलिए सर्वसुखों का नाश करने में शत्रु के समान एवं सर्व दुःखों का कारणभूत इस अभ्याख्यान के पाप को जानकर इसका त्याग करना चाहिए। इस सन्दर्भ में रुद्र और अंगर्षि की कथा का निरूपण किया गया है।518 १४. अरति-रति :- संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार कहते हैं-अरति एवं रति-दोनों ही पाप स्थानक हैं, जिस प्रकार इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं होने पर अरति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार इच्छित वस्तु की प्राप्ति होने पर रति होती है और उसका नाश होने पर रति अरति में बदल जाती है। इस प्रकार इनके 516 संवेगरंगशाला, गाथा, ६१११-६१२०. 517 संवेगरंगशाला, गाथा, ६१५५-६१७०. संवेगरंगशाला, गाथा ६२४३-६२५२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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