SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 229 से मनुष्य कर्त्तव्य - अकर्त्तव्य के विचार से रहित हो जाता है, तथा मृत्यु भी उसके लिए नगण्य हो जाती है। लोभ के वशीभूत मनुष्य पर्वत की गुफा में एवं समुद्र की गहराई में भी प्रवेश कर लेता है, युद्धभूमि में भयंकर युद्ध करता है, अपने एवं स्वजनों के प्राण त्याग का कारण बनता है। इस प्रकार इच्छित धन की प्राप्ति होने पर भी लोभी जीव की तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती है, बल्कि वह तृष्णा आकाश को छूने दौड़ती है। लोभ अखण्ड व्याधिरूप है, सर्व - विनाशक है, परिवार में भेदभाव करानेवाला है, सर्व - आपत्तियों को उत्पन्न करनेवाला है तथा दुर्गति में ले जानेवाला राजमार्ग है, इसलिए ऐसे लोभ का सम्पूर्ण त्याग करना चाहिए, क्योंकि “सन्तोषी सदा सुखी", - कहा गया है। जो सन्तोष धारण करता है, वही सच्चे सुख को प्राप्त करता है। इस सन्दर्भ में कपिल ब्राह्मण की कथा उपलब्ध है। 514 १०. राग :- इसमें ग्रन्थकार राग (प्रेम) का अर्थ बताते हुए कहते हैंराग (प्रेम) पुरुष के शरीर में बिना अग्नि की भंयकर जलन है। यह बिना विष की मूर्च्छा है, शक्ति, आदि के होने पर भी व्यक्ति का निर्बल होना, आँखें होने पर भी अन्धा होना एवं कान होने पर भी बहरा होना है, परवश एवं व्याकुलता होना है। इस प्रकार ज्वर एवं राग में अल्प भी लक्षण-भेद नहीं है। जिस प्रकार ज्वर होने पर शरीर में परिताप, कम्पन, दुर्बलता, निद्रा का अभाव, अप्रसन्नता, आदि दोष उत्पन्न होते हैं, वैसे ही राग में भी शरीर में ये दोष उत्पन्न होते हैं। राग के कारण कुलीन मनुष्य भी अकार्य करता है। पण्डित पुरुषों ने जिसे अशुचिमय, दुर्गन्धमय एवं वीभत्स जानकर त्याग दिया है, उसी के साथ यह मूढात्मा राग करता है। दुःख की बात तो यह है कि फिर वह किसमें राग नहीं करता होगा? वह धन, धान्य, सोना, चाँदी, क्षेत्र, वस्तु, आदि सभी में राग करता है और उन वस्तुओं की प्राप्ति के लिए विदेश गमन करता हुआ दुःख को प्राप्त करता है एवं उनके दुर्ध्यान से वह इहलोक एवं परलोक में दुःखी होता है। इस प्रकार राग ( आसक्ति) ही संसार का मूल कारण होने से साधक को राग का त्याग करना चाहिए | Sis ११. द्वेष :- अति क्रोध एवं मान से उत्पन्न हुए अशुभ आत्म-परिणाम को यहाँ द्वेष कहा है, क्योंकि इससे परस्पर मनुष्यों में द्वेष उत्पन्न होता है । द्वेष अनर्थ का घर है, भय है, कलह है, दुःख एवं अन्याय का भण्डार है, अशान्ति एवं द्रोह उत्पन्न करने वाला है, सर्व गुण - विनाशक है। द्वेषी व्यक्ति सदैव दूसरों के 514 संवेगरंगशाला, गाथा ६०२३-६०३२ 515 संवेगरंगशाला, गाथा, ६०६६-६१२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy