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228 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
है। क्रोध से बुद्धि का नाश होता है और इसमें वह सर्व पापस्थानकों का सेवन करता है, इसलिए हे मुनि ! तू क्षमारूपी तीक्ष्ण तलवार से महापापी मल्लरूपी क्रोध को चतुराई से समाप्त करके उपशमरूपी विजयलक्ष्मी को प्राप्त कर । क्रोध दुःखों का मूल है, इसलिए उसका उपशम करना ही श्रेष्ठ उपाय है। इस प्रसंग पर प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा दी गई है | | |
७. मान :- संवेगरंगशाला में मान को लघुता का मूल कहा है तथा यह भी कहा गया है कि मान से यश, कीर्ति एवं प्रिय बन्धुजनों का विनाश होता है। अभिमानी पुरुष में विनय नहीं होता है, इसलिए विनय से रहित व्यक्ति में ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती एवं ज्ञान के बिना चारित्र की प्राप्ति नहीं होती, चारित्र के बिना कर्मों की निर्जरा नहीं होती एवं निर्जरा के अभाव में मोक्ष नहीं होता है। इस तरह मोक्ष के अभाव में शाश्वत सुख कैसे प्राप्त कर सकता है? मानी पुरुष स्वयं को त्यागी, गुणी एवं ज्ञानी मानता है एवं अन्य गुणवान्, त्यागी महापुरुषों का अपमान करता है। यहाँ ग्रन्थकार कहते हैं कि स्व-पर के घातक एवं उभयलोक में दुःख देनेवाले इस मान का विवेकी पुरुष सर्वथा त्याग कर देते हैं, इसलिए है क्षपक! यदि तू निर्दोष आराधना की इच्छा करता है, तो सर्वप्रथम मान का त्याग कर, क्योंकि प्रतिपक्ष का क्षय करने से पक्ष की सिद्धि होती है। जैसे- बुखार के जाने से शरीर में स्वस्थता प्रकट होती है, वैसे ही मान के जाते ही आत्मा का क्षमा- गुण प्रकट होता है। इस सन्दर्भ में बाहुबली का दृष्टान्त दृष्टव्य है । 1512
८. माया :- संवेगरंगशाला में कहा गया है कि माया से उद्वेग एवं पाप उत्पन्न होता है एवं धर्म का नाश होता है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप में की गई प्रवृत्ति यदि मायासहित हो, तो वे गुण भी नष्ट हो जाते हैं। माया से मनुष्य आकड़े की रूई से भी तुच्छ होता है, अविश्वास का पात्र बनता है, इसलिए हे सुविहित! माया गुणों को नष्ट करनेवाली है एवं दोषों को बढ़ानेवाली है- ऐसा विचार कर तुझे भी उसका त्याग करना चाहिए । माया के परित्याग से सरलता - गुण प्रकट होता है। क्योंकि सज्जन पुरुष की सर्वत्र प्रशंसा होती है, इसलिए गुणीजनों को माया का त्याग करने का प्रयत्न करना ही योग्य है। इस ग्रन्थ में माया- पापस्थानक पर पण्डरा आर्या का दृष्टान्त दिया गया है। 513
६. लोभ :- संवेगरंगशाला के अनुसार लोभ बादल की तरह प्रकट होता है और बादल की ही तरह हर समय वृद्धि करता रहता है। लोभ के बढ़ने
511 संवेगरंगशाला, गाथा ५६०६-५६२३. 512 संवेगरंगशाला, गाथा ५६४६-५६७१.
513 संवेगरंगशाला, गाथा ५६६६ - ६००५
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