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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 227 - ग्रीष्म ऋतु की गर्मी के सदृश है, ज्ञानादि निर्मल गुणरूपी राजहंसों के समूह के लिए विघ्नभूत वर्षा ऋतु है, महा- आरम्भरूपी अत्यधिक अनाज उत्पन्न करने के लिए शरद ऋतु का आगमन है, साथ ही यह परिग्रह विशिष्ट सुखरूप कमलिनी के वन को जलाने वाली हेमन्त ऋतु है, विशुद्ध धर्मरूपी वृक्ष के पत्तों का नाश करने वाली शिशिर ऋतु है, मूर्च्छारूपी लता का अखण्ड मण्डप है, दुःखरूपी वृक्षों का वन है, सन्तोषरूपी शरद ऋतु के चन्द्र को क्षीण करनेवाला राहू का मुख है, अत्यन्त अविश्वास का पात्र है एवं कषायों का घर है। ऐसे परिग्रह की इच्छा करना भी महापाप है, क्योंकि इच्छा को किसी भी तरह से पूर्ण नहीं किया जा सकता है। जैसे संसार में जीव सौ से हजार की इच्छा करता है, हजार से लाख की, लाख से करोड़ की, करोड़ से राज्य सुख की, राज्यसुख से देव के सुख की और फिर इन्द्र के सुख की इच्छा करता है, इस तरह इन्द्र की ऋद्धि मिलने पर भी जीव को सन्तोष नहीं होता है। चूँकि इच्छा तो आकाश के समान अनन्त होती है, इसलिए वह अपूर्ण ही रहती है। 509 इसमें कहा गया है कि इच्छा को अधिक बढ़ाना सद्गति को लात मारकर दुर्गति का पथिक बनना है । अल्प पुण्यवाला जीव यदि परिग्रह बढ़ाने की इच्छा करता है, तो वह अपने हाथ से आकाश-तल को पकड़ने की इच्छा करता है, अर्थात् वह मूढात्मा धन की इच्छा से अधूरे मनोरथ से ही मृत्यु को प्राप्त करता है। चूँकि धन-सम्पत्ति आत्मा को कभी पूर्ण सन्तुष्ट नहीं कर सकती है, इसलिए इच्छा के विच्छेद के लिए सन्तोष को धारण करना ही सर्वोत्तम मार्ग है। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में लोभानन्दी और जिनदास श्रावक की कथा का उल्लेख है। " 510 ६. क्रोध :- संवेगरंगशाला में जिनचन्द्रसूरि ने क्रोध की व्याख्या इस प्रकार की है - क्रोध दुर्गन्धयुक्त वस्तु से उत्पन्न हुई दुर्गन्ध ही है । इस दुर्गन्धमय क्रोध से उद्वेग उत्पन्न होता है, इसलिए महापुरुषों ने इसका दूर से ही त्याग किया है। क्रोधाग्नि की ज्वालाओं से ग्रसित अविवेकी पुरुष स्व और पर को पहचान नहीं पाता है। जैसे- अग्नि जहाँ उत्पन्न होती है, उसे ही पहले जलाती है, उसी तरह क्रोधाग्नि भी जिसमें उत्पन्न होती है, उस पुरुष को ही पहले जलाती है। क्रोध दूसरों को जलाए अथवा नहीं जलाए - यह नियम नहीं है, किन्तु स्वयं को अवश्य जलाता है। क्रोधी पुरुष इहलोक - परलोक के सुखों को नष्ट करता है। दुश्मन एक ही जन्म में अहित करता है, किन्तु क्रोध दोनों जन्मों में अहित करनेवाला होता 509 संवेगरंगशाला, गाथा ५८६५-५८७७. 510 संवेगरंगशाला, गाथा ५८७८-५८८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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