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________________ 226 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री मूल्यवाला है, दर्शन सहस्त्र मूल्यवाला है, वार्तालाप कोटि मूल्यवाला है, तो अंग का सम्भोग तो अमूल्य होगा ही। ऐसा विचार करते हुए उसकी विवेक-चेतना नष्ट हो जाती है, वह दिन-रात, भूख-प्यास, सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी, योग्य-अयोग्य, आदि किसी भी वस्तु का ख्याल नहीं रखता है। मुख छिपाकर लम्बे निःश्वास लेता है, पश्चाताप करता है, कम्पायमान होता है, विलाप करता है, रोता है, सोता है और जम्हाई (उबासी) लेता है। इस तरह अनन्त चिन्ता की परम्परा से खेद करते हुए कामी-पुरुष के विकारों को देखकर मैथुन का, द्रव्य से देव, मनुष्य और तिर्यंच के सम्बन्ध में, क्षेत्र से उर्ध्व, अधो एवं तिय-लोक में, काल से दिन अथवा रात्रि में, और भाव से राग एवं द्वेषपूर्वक त्याग करना चाहिए। मैथुन-दोष को महापाप एवं सर्व कष्टों का कारण जानकर मन से भी कभी इसकी इच्छा नहीं करना चाहिए। मैथुन भय से वाचा को व्याकुल करने वाला है, निर्लज्ज है और निन्दनीय है, इसी कारण वह गुप्त रूप से सेवन करने योग्य है, इस प्रकार मैथुन विविध प्रकार की व्याधियों का कारण और अपथ्य भोजन के समान शक्ति को घटानेवाला, प्रारम्भ में सुख एवं अन्त में दुःख देनेवाला, किंपाक फल के समान है। तुच्छ नृत्यकार के नृत्य के समान एवं गंधर्व नगर के समान भ्रान्ति उत्पन्न करनेवाला है एवं तीनों लोक में तिरस्कार को प्राप्त करनेवाले श्वान, आदि अधम प्राणियों के समान है।507 इस प्रकार मैथुन सेवन से परलोक में धर्म-अर्थ का अभाव होता है। जैसे- पानी में लोहे का गोला डालने से सीधे नीचे जाता है, वैसे ही मैथुन-पाप के भार से भारी बना मनुष्य नरक में जाता है। आगे ब्रह्मचर्य के गुणों का निरूपण किया गया है- जो अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह पुण्यशाली जीव इच्छामात्र से प्रयोजन को सिद्ध करनेवाला होता है और देवत्व को प्राप्त करता है। वहाँ से च्यवनकर मनुष्यलोक में विशिष्ट कुल, जाति, सुन्दर शरीर, अटूट समृद्धि, आदि को प्राप्त करता है। साथ ही, वह सौभाग्यशाली, दीर्घायुषी, विवेकी, तेजस्वी, ब्रह्मचारी, मधुरभाषी तथा निरोगी होता है एवं अन्य अनेक गुणों को भी प्राप्त करता है। इस प्रकार चौथे पापस्थानक में प्रवृत्ति के दोष एवं निवृत्ति के गुण के विषय में तीन सखियों की कथा का निरूपण किया गया है।508 ५. परिग्रह :- संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार ने परिग्रह को सभी पापस्थानकों के महलों की मजबूत बुनियाद एवं संसाररूपी गहरे कुएँ के अनेक स्रोतों का प्रवाह कहा है। परिग्रह, पण्डितों के द्वारा भी अनेक कुविकल्परूपी अंकुरों को उगानेवाला वसन्तोत्सव है, एकाग्रचित्ततारूपी बावड़ी को सुखाने वाली 507 विंगरंगशाला, गाथा ५७०८-५७३१, 508 संवेगरंगशाला, गाथा ५७३२-५८४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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