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234 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री नाश प्रायः शारीरिक-वासनाओं और कषायों के कृश करने से सम्भव है और रागादि में यह कृशता तपादि से होती है और तप की पूर्णता संलेखना का अनुसरण करने से होती है, इसलिए प्रस्तुत कृति में संलेखना नामक पन्द्रहवें द्वार में आराधना-विधि का विस्तार से उल्लेख किया गया है।528
संवेगरंगशाला के अनुसार जिनेश्वरदेव ने संलेखना को तप कहा है. क्योंकि इसके द्वारा काया और कषाय को कृश किया जा सकता है। सामान्यतः तो सभी तप कषायों को क्षीण करनेवाले होते हैं, फिर भी अन्त समय में स्वीकार की गई संलेखना एक ऐसा विशिष्ट तप है, जो कषायों को क्षीण कर मुक्ति को प्रदान करता है।
इस कृति में आगे यह भी बताया गया है कि साधु अथवा श्रावक को इस संलेखनारूपी तप को असाध्य-व्याधि, उपसर्ग अथवा दुष्काल, आदि अन्य कारणों के उपस्थित होने पर ही करना चाहिए। अनेक श्रावकों एवं मुनियों ने जीवनपर्यन्त साधना करते हुए भी अन्त समय में संलेखना ग्रहण करके तप के द्वारा शरीर को और भावों के द्वारा कषायों को कृश किया है। कषायों की समाप्ति होने पर ही मुक्ति होती है।529
ऋषभदेव, आदि तीर्थकर जो लोक के तिलक समान, केवलज्ञान की किरणों से ज्ञान का प्रकाश करनेवाले तथा अवश्यमेव सिद्धि प्राप्त करनेवाले होते हैं; वे भी निर्वाण के समय सविशेष तप करके ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं, इसलिए मोक्ष की इच्छावाली भवभीरु आत्मा को आराधना करते हुए अन्त में संलेखनारूपी तप करना चाहिए।530
संवेगरंगशाला के प्रस्तुत द्वार में संलेखना के उत्कृष्ट और जघन्य-इस प्रकार दो भेद करके पुनः इन्हें द्रव्य एवं भाव की अपेक्षा दो-दो भागों में बाँटा है। इसमें द्रव्य से शरीर को एवं भावों से कषायों को क्षीण करते हुए उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की और जघन्य संलेखना छः मास की बताई गई है।531
__ यहाँ उत्कृष्ट संलेखना-काल की विधि का विवेचन करते हुए कहा गया है कि साधक विविध अभिग्रह सहित एक, दो या तीन उपवास आदि विविध तपों में सरस आहार से पारणा करते हुए चार वर्ष पूर्ण करे। इसके पश्चात् पुनः चार
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संवेगरंगशाला, गाथा ३६८३-३६८७. 59 संलेहणा य एत्थं तवकिरिया जिणवरेहिं पन्नता। जं तीए संलिहिज्जइ देहकसायाऽऽइ नियमेण।। संवेगरंगशाला, गाथा ३९८८-३६६५. 530 संवेगरंगशाला, गाथा ३६६६-३६६६. 531 संवेगरंगशाला, गाथा ४००४-४००५.
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