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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 221
है एवं कमों का विनाश होने से ही दुःख से छुटकारा होता है। हे सुभग! तुम विश्वस्त होकर अपने चित्त को व्याकुल किए बिना यहाँ रहो। हम क्षण भर वैयावृत्यकारकों (सेवा करनेवालों) के साथ इस विषय पर निर्णय (विचार) करते
प्रस्तुत कृति में ग्रन्थकार पृच्छा का तात्पर्य बताते हुए कहते हैं- निश्रा में आए क्षपक की इच्छा को जानकर निर्यापक-आचार्य परिचर्या करनेवाले मुनिजनों से पूछते हैं कि यह क्षपक रत्नत्रय की साधना में हमारी सहायता चाहता है, अर्थात् हमारी निश्रा में विशुद्ध आराधना करने की इच्छा रखता है, अतः कहिए, हम लोग इस पर अनुग्रह करें या न करें? इसके साथ ही आचार्य कहते हैं कि यदि इस क्षेत्र में तपस्वी के लिए समाधिजनक अन्न, जल, आदि वस्तुएँ सुलभ हो एवं तुम सब इनका विनय-वैयावृत्य स्वीकार करते हो, तो हम इस महानुभाव तपस्वी को स्वीकार करें।
इसके पश्चात् परिचायक आचार्य के वचनों को बहुमान् देते हुए वे कहते हैं-हे भगवन्! तपस्वी के साधना हेतु यह क्षेत्र अनुकूल है। यहाँ आहार-पानी की सुलभता है एवं हम भी क्षपक के रत्नत्रय की साधना में सहायता करने के लिए तैयार हैं, अतः आप इस पर अनुग्रह करें। शिष्यों द्वारा ऐसा कहने पर आचार्य तपस्वी क्षपक को गण में स्वीकार करते हैं एवं क्षपक की साधना को निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण कराते हैं।
इस तरह पृच्छा से परस्पर असमाधि उत्पन्न नहीं होती है तथा यह निर्यापक-आचार्य, आराधक एवं सेवा करनेवाले मुनिजनों के लिए कल्याणकारी सिद्ध होता है।496 निर्यापक-आचार्य द्वारा क्षपक को हितशिक्षा (अनुशास्ति) :
संवेगरंगशाला के चतुर्थ समाधिलाभ द्वार के प्रथम अनुशास्ति प्रतिद्वार में निर्यापक-आचार्य क्षपकमुनि को उपदेश देते हुए कहते हैं। हे देवानुप्रिय! तुम धन्य हो। तुमने सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जीवन को प्राप्त किया तथा गृहस्थाश्रम को तृणवत् त्यागकर भगवती-दीक्षा को स्वीकार किया। उसके पश्चात् भी अतिदुष्कर इस अनशन को स्वीकार करके इस तरह अप्रमत्त चित्त से साधना के लिए तत्पर बने हो, अतः तुम्हारी साधना निर्विजतापूर्वक पूर्ण हो, इस दृष्टि से मैं तुम्हें किंचित शिक्षा देना चाहता हूँ। इन शिक्षाओं को जीवन में उतारने से साधक-आत्मा
495 संवेगरंगशाला, गाथा ४८५४-४८६६. 496 संवेगरंगशाला, गाथा ४५४४-४८५३.
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