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________________ 220/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री अन्यथा क्षपक की शिथिलता को देखकर जिन शासन की निन्दा, आदि का दोष उत्पन्न होने का भय रहता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि एक निर्यापक आचार्य की देख-रेख में एक साथ दो मुनि सल्लेखना कर सकते हैं, तीसरे मुनि की अनुज्ञा नहीं है। इसका कारण स्पष्ट है कि यदि दो या तीन क्षपक संस्तर (संथारा) पर आ जाएँ, तो चित्त को समाधान देनेवाली विनय-वैयावृत्य में कमी आती है, इसलिए आचार्य एक या दो ही क्षपक को स्वीकार करते हैं।493 क्षपक का परगणप्रवेश (उपसम्पदा) : संवेगरंगशाला में साधना में सुस्थित व्यक्ति के गुणों का विवेचन करने के पश्चात् उपसम्पदा का निरूपण किया गया है- रत्नत्रयी के गुणों से युक्त क्षपक आचारत्व आदि गुणों से युक्त निर्यापक-आचार्य को खोजकर उनसे उपसंपदा (पुनर्दीक्षा) स्वीकार करता है। सर्वप्रथम क्षपक निर्यापक-आचार्य की विधिपूर्वक वन्दना करता है, फिर वह मुमुक्षु क्षपक विनयपूर्वक दोनों हाथों को जोड़कर अंजलि बनाकर आचार्य से इस तरह कहता है-हे भगवन्! आप द्वादशांग श्रुत सागर के पारगामी हो, जिनशासनरूपी प्रासाद के आधार स्तम्भ हो, संघ के निर्यापक हो, संसाररूपी वन में भ्रमण करते थके हुए प्राणियों के लिए समाधि का स्थान हो एवं इस संसार में आप ही गति हो, मति हो, हम अशरणों के शरण हो, हम अनाथों के नाथ हो। हे भगवन्! मैं अपने करने योग्य कर्तव्यों को पूर्ण करके अब आपश्री के चरणों में रहकर अपने श्रामण्य-जीवन की विशुद्धि करने हेतु आया हूँ। दीक्षा ग्रहण करने से लेकर आज पर्यन्त मैंने जो भी दोष किए हैं, उन सर्व अपराधों की सम्यक् रूप से आलोचना करके अपने रत्नत्रय को विशुद्ध करना चाहता हूँ, और अब तक जो चारित्र का पालन किया, उसकी विशुद्धि करके निःशल्य आराधना करने की इच्छा करता हूँ।494 निर्यापक-आचार्य उत्तम चारित्रवाले क्षपक के उक्त वचनों को श्रवणकर इस प्रकार कहते हैं- हे भद्र! मैं तुम्हारे मनोवांच्छित कार्य को निर्विघ्नतापूर्वक शीघ्र सिद्ध करूंगा। हे सुविहित! तुम धन्य हो, पुण्यशाली हो, जो तुम चार गतियों में परिभ्रमणरूप संसार में जो दुःख हैं, उन दुःखों को नष्ट करने हेतु निष्पाप आराधना करने के लिए उत्साही बने हो। आराधना से ही कमों का विनाश होता 493 संवेगरंगशाला, गाथा ४८५४-४८६६. 494 संवेगरंगशाला, गाथा ४७१५-४७२१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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