________________
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 219
में अतिचार लगा हो, तो वह क्षपक विश्वासपूर्वक अपने दोषों को आचार्य से कहता है और यदि आचार्य उन अपराधों को दूसरों को कह देता है, तो उस आचार्य ने ऐसा करके उस साधु का ही त्याग कर दिया, क्योंकि उसने यह विचार नहीं किया कि मेरे द्वारा इसके दोष प्रकट कर देने पर यह लज्जित होकर दुःखी होगा, अथवा आत्मघात कर लेगा, अथवा क्रुद्ध होकर रत्नत्रय को छोड़ देगा । ऐसा करके उस आचार्य ने अपनी आत्मा का त्याग किया, गण का त्याग किया, संघ का त्याग किया। इतना ही नहीं, उससे मिथ्यात्व की आराधना का दोष भी होता है।
उस आचार्य ने आत्मत्याग कैसे किया, उसे कहते हैं पर कोई क्षपक द्वेषी बनकर उस आचार्य को मार सकता है, डाल सकता है, अथवा विरोधी हो सकता है।
जो आचार्य पूछने पर अथवा बिना पूछे शिष्यों के द्वारा प्रकट किए दोषों को दूसरों से नहीं कहता, वह रहस्य को गुप्त रखनेवाला आचार्य अपरिश्रावी होता है और उसे ऊपर कहे दोष जरा भी नहीं छूते हैं । 492 निर्यापक- आचार्य द्वारा स्वगण के साधुओं की सम्मति प्राप्त करना (प्रतीच्छा ):
संवेगरंगशाला में वर्णित उपर्युक्त विधि के अनुसार निर्यापक आचार्य आए हुए क्षपक को आदरपूर्वक स्वीकार करते हैं। यदि एक साथ दो क्षपक आराधना के लिए आ जाते हों, तो एक संस्तारक ( संथारा) में रहकर आराधना द्वारा शरीर का त्याग करता है एवं दूसरा उग्र तप के द्वारा काय और कषायों को कृश करता है। साथ ही, यदि तीसरा क्षपक भी आ जाता है, तो निर्यापक उसको स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि वैयावृत्यकारकों के अभाव में समाधि सम्यक् रूप से पूर्ण नहीं होती है, किन्तु अधिक परिचारकों के होने पर उनकी अनुमति से उस तीसरे क्षपक को भी स्वीकार कर लेते हैं।
रहस्य-भेद करने अथवा गण में भेद
इस तरह निर्यापक शास्त्र - विहित विधि के अनुसार क्षपक की सेवा शुश्रूषा करते हैं। यदि कभी क्षपक अनशन ( तप) करने में असमर्थ हो एवं उसे अत्यधिक शिथिलता का अनुभव होता हो, तो निर्यापक आचार्य उस क्षपक का स्थानान्तरण करते हैं एवं दूसरे क्षपक को बाहर रखकर दोनों के बीच (मध्य) परदा रखते हैं। साथ ही उस क्षपक के स्वजनादि वन्दनार्थ पधारें, तो मात्र क्षपक के दर्शन कराते हैं एवं उसके बदले बाहर रहे क्षपक की वन्दना करवाते हैं,
492 संवेगरंगशाला, गाथा ४७०६-४७१४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org