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________________ 218 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री करेंगे, अपराधी जानकर वे उसे त्याग देंगे- इससे भी वह डरता है, अतः अपने अपराध और शरीर को त्यागने के लिए तत्पर होता हुआ भी वह गुरु से अपने दोषों को नहीं कह पाता है। ... उस समय आचार्य को यह बतलाना चाहिए कि जो अपने दोषों की आलोचना नहीं करता है, अथवा आलोचना करते हुए भी मायाचारपूर्वक आलोचना करता है, अथवा अपना अपराध नहीं कहता, उसे दोष लगता है। आचार्य इसे दृष्टान्त द्वारा बताते हैं- जैसे शरीर में लगे बाण, कांटा, आदि शल्य को न निकालने पर मनुष्य कष्ट से पीड़ित होता है, उसी प्रकार भावशल्य से युक्त भिक्षु भी तीव्र दुःखों से पीड़ित होता है और भय से विचलित होता है। वह विचार करता है कि शल्य को दूर नहीं करने पर वह किस गति में जाएगा? इस तरह लज्जा, भय और गर्व से प्रतिबद्ध क्षपक के भावशल्य को यदि दूर न किया जाए, तो वह उसके व्रत, शील और गुणों को नष्ट करता है। दीर्घकाल तक दीक्षा धारण करके जो बोधिलाभ प्राप्त किया था, वह नष्ट हो जाता है और जन्ममरणरूपी भंवरों से युक्त भंयकर भवसमुद्र में अनन्तकाल तक भ्रमण करता है एवं भयंकर दुःखों को भोगता है, इसलिए संसार से भयभीत श्रमण को प्रमादवश एक मुहूर्त्तमात्र के लिए भी शल्यसहित रत्नत्रय के साथ रहना उचित नहीं है। अतः, उक्त गुणवाले आचार्य के सान्निध्य में उसे अपने दोषों (शल्य) को निकाल देना चाहिए। जन्म-जरा-मरण के दुःख से भयभीत क्षपक को भय एवं लज्जा को छोड़ आर्जव (सरलता) और मार्दव (विनम्रता) से युक्त होना चाहिए। धीर क्षपक पुनर्जन्मरूपी लता के मूल भावशल्य को उखाड़कर अनन्त भवसागर से तिर जाते हैं संवेगरंगशाला में उक्त कथन का उपसंहार करते हुए जिनचन्द्रसूरि कहते हैं- यदि आचार्य क्षपक को आलोचना, अर्थात् अपराध को कहते हुए गुण व दोष न बतलाए, तो वह क्षपक पूर्वोक्त मायाशल्य दोष से निवृत्त नहीं होगा और निःशल्य-गुण से युक्त नहीं होगा, अतः आचार्य को क्षपक के भावशल्य को मधुर वचन से दूर करना चाहिए। अपरिश्रावी :- संवेगरंगशाला में अन्त में अपरिश्रावी-गुण का उल्लेख किया गया है। जैसे- लोहे के पात्र में रखा हुआ जल बाहर नहीं निकलता है, वैसे ही जिस आचार्य के समक्ष कहे गए दोष अन्य मुनियों पर प्रकट नहीं होते, वह आचार्य अपरिश्रावी-गुण से युक्त होता है। किसी क्षपक के सम्यग्दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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