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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 217
कठोर एवं प्रतिकूल वचनों से कुपित हो सकता है, अथवा मर्यादा का उल्लंघन कर सकता है।
जब क्षपक शीत, उष्ण, भूख, प्यास से पीड़ित होने पर मर्यादा को तोड़ने की इच्छा करता है, तब विचलित न होनेवाले, क्षमाशील मुनि एवं अभिमानरहित आचार्य को सन्तोषयुक्त वचन कहते हुए, उस कुपित अथवा मर्यादा को लांघने के इच्छुक क्षपक के चित्त को शान्त करना चाहिए।
इस ग्रन्थ में आगे आचार्य किस प्रकार क्षपक का चित्त शान्त करते हैं, वह बताते हैं- जो आचार्य श्रुत-पुरुष के समान श्रुतों का ज्ञाता, विविध योग से श्रुत का निरूपण करनेवाला, रत्नत्रय के अतिचारों का ज्ञाता एवं जितेन्द्रिय महात्मा होता है, वही निर्यापक-आचार्य स्निग्ध, मधुर, गम्भीर एवं प्रियवचनों से प्रीतिकर कथा कहता है, जिससे क्षपक को पहले अभ्यास किए हुए श्रुत के अर्थ का स्मरण होता है।
इस तरह निर्यापक आचार्य संयम और गुणों से पूर्ण, किन्तु परिषहरूप लहरों से चंचल हुए क्षपकरूपी जहाज का मधुर एवं हितकारी उपदेशों से संरक्षण करता है। यदि वह आत्म-हितकर ऐसी मधुरवाणी क्षपक के कानों में न सुनाए, तो मोक्ष-सुख को लानेवाली आराधना को क्षपक छोड़ बैठता है, अतः निर्यापक गुण से युक्त आचार्य क्षपक का उपकारी होता है और उसकी कीर्ति सर्वत्र फैलती
७. अपायदर्शी :- अपायदर्शी गुण का कथन करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं - यद्यपि क्षपक संसार-समुद्र के किनारे पहुँच जाता है, फिर भी उसे तीव्र राग-द्वेष की भावना उत्पन्न हो सकती है। आराधना के अन्तिम क्षणों में कर्मवश क्षुधा-तृषा वेदना से क्षपक को दुर्ध्यान हो सकता है। पूर्व में क्षपक प्रतिज्ञा करता है कि दीक्षा लेने के दिन से समाधि धारण करने के दिन तक रत्नत्रय में जो दोष लगेंगे, उन सबको वह गुरु के समक्ष निवेदन करेगा। ऐसी प्रतिज्ञा करके भी जब अपराध-निवेदन का समय आता है, तब क्षपक उस अपराध को कहने में लज्जा का अनुभव करता है।
वह क्षपक डरता है कि उसके अपराध को जानकर वे सब उसकी अवज्ञा करेंगे। उसकी इच्छा अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने की होती है। वह चाहता है कि सब उसका मान करें, किन्तु अपराध ज्ञात होने पर वे सब उसका मान नहीं
491 संवेगरंगशाला, गाथा ४६७६-४६८४.
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