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________________ 216 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री में स्थिरता करना चाहिए। उनके चरणों में रहने से निश्चय से दोष-शुद्धि होकर समाधि सम्यक् होती है।488 ४. प्रभावशाली (अवपीड़क) :- प्रस्तुत कृति में अवपीड़क का अर्थ बताते हुए ग्रन्थकार कहते हैं- जो ओजस्वी-बलवान्, तेजस्वी-प्रतापवान्, वर्चस्वी-प्रश्नों के उत्तर देने में कुशल, प्रसिद्ध कीर्तिशाली और सिंह के समान निर्भय होते हैं, उन्हें जिनेश्वर भगवान् ने अवपीड़क आचार्य कहा है। स्निग्ध, मधुर, हृदयग्राही और सुखकर वचनों के द्वारा एकान्त में समझाने पर भी कोई क्षपक अपने दोषों को सम्यक् रूप से नहीं कहता है, तो जैसे-सिंह सियार के पेट में गए मांस को भी उगलवाता है, वैसे ही अवपीड़क-आचार्य उस अनुत्साही क्षपक के अन्तर में छिपे हुए मायाशल्य के दोषों को बाहर निकलवाता है। कटु औषध की तरह उसके कठोर वचन भी उस क्षपक के लिए हितकारी होते हैं, क्योंकि स्वहित में तत्पर किन्तु परहित की उपेक्षा करनेवाले जीव जगत् में बहुत सुलभ हैं, किन्तु स्वहित की तरह परहित की चिन्ता करनेवाले मनुष्य लोक में दुर्लभ हैं। यदि आचार्य क्षपक के दोषों को न निकाले, तो दोषों से निवृत्त हुए बिना वह निरतिचार रत्नत्रय की साधना में प्रवृत्त नहीं होता है, इसीलिए अवपीड़क आचार्य को क्षपक के सर्व दोष उगलवाना चाहिए, क्योंकि इसी में क्षपक का हित है।489 ५. प्रकुर्वी :- प्रकुर्वी गुण का प्रतिपादन करते हुए कहा गया हैजो आचार्य क्षपक के वसति से निकलने अथवा उसमें प्रवेश करने में, वसति (शय्या), संस्तर, उपकरण, आदि शोधन में, आहार लाने में, बैठने में, खड़ा होने में, सोने में, शरीर से मल दूर करने में तथा इसी प्रकार पण्डितमरण सम्बन्धी चर्या में पूर्ण आदर एवं उत्कृष्ट भक्ति से हस्तावलम्बन द्वारा उत्कृष्ट उपकार करते हैं, वे ही आचार्य प्रकुर्वक होते हैं। - इस प्रकार अपने श्रम की परवाह न करके जो आचार्य क्षपक की सर्व प्रकार से सेवा करते हैं, वे प्रकुर्वक कहे जाते हैं, इसीलिए रोग से ग्रस्त क्षपक आचार्य के सेवा-गुण से प्रसन्नता (सुख) प्राप्त करता है, अतः क्षपक को सेवा करनेवाले आचार्य के पास ठहरना चाहिए।490 ६. निर्यापक अथवा निर्वाहक :- संवेगरंगशाला के अनुसार निर्यापक आचार्य के बिना क्षपक संस्तर और भोजनपान मन के अनुकूल न होने पर, अथवा उनमें देरी होने पर, वैयावृत्य में प्रमाद करने पर या नए साधुओं के 488 संवेगरंगशाला, गाथा ४६५७-४६६३. 489 संवैगरंगशाला, गाथा ४६६४-४६७१. 490 संवैगरंगशाला, गाथा ४६७२-४६७५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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