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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 215
ऐसी परिस्थिति में गीतार्थ आचार्य क्या करता है, इसे कहते हैं-गीतार्थ आचार्य विधिपूर्वक क्षपक की इच्छा की पूर्ति करके, जो वह चाहता है, वह देकर समाधि करता है, अर्थात् रत्नत्रय में उसका मन स्थिर करता है। गीतार्थ, क्षपक के निराश चित्त को सम्यक् उपायों से जैसे- शान्तिदायक वचन, उपकरणदान एवं पूर्व में हुए क्षपकों के दृष्टान्त, आदि से विधिपूर्वक शान्त करता है। शास्त्र के अर्थ को हृदयंगम करनेवाले आचार्य क्षपक की वेदना को नष्ट करने में समर्थ एवं वात, पित्त एवं कफ का प्रकोप होने पर उनका भी प्रतिकार करने में भी समर्थ होते हैं, जिससे क्षपक पुनः प्रशमगुण को प्राप्त होता है तथा देह के प्रति ममत्वभाव को छोड़कर हर्ष-शोक से रहित बनता है एवं पुनः धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान से मोह को नष्ट करके निर्वाण-सुख को प्राप्त करता है।
इस तरह आधारवान् गीतार्थ की निश्रा में ली हुई समाधि सफल बनती है, अतः संक्लेश न हो एवं असाधारण (श्रेष्ठ) समाधि प्रकट हो, इसलिए आधारभूत आचार्य की निश्रा ग्रहण करना चाहिए।487
३. व्यवहारवान् :- संवेगरंगशाला में जिनचन्द्रसूरि आगे व्यवहारवान् गुण का निरूपण करते हैं - जिसे पांच प्रकार के व्यवहार का ज्ञान हो, अर्थात् जो प्रायश्चित्त देने में अनुभवी हो, वह आचार्य व्यवहारवान् होता है। प्रायश्चित्त-शास्त्र का ज्ञान, प्रायश्चित्त कर्म का विवेक तथा प्रायश्चित्त देने का अनुभव - ये तीन गुण जिसमें हैं, उस आचार्य को व्यवहारवान् कहते हैं-१. आज्ञा २. श्रुत ३. आगम ४. धारणा और ५. जीत - यह पाँच प्रकार का व्यवहार है। इनकी विस्तृत प्ररूपणा प्राचीन शास्त्रों में उपलब्ध है।
व्यवहारवान आचार्य दूसरों के दोषों का प्रायश्चित्त कैसे देता है? इसका वर्णन करते हैं-आचार्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, करण, परिणाम, उत्साह, शरीरबल, प्रव्रज्याकाल, आगमज्ञान और व्यक्ति की परिस्थिति को जानकर प्रायश्चित्त देता है। पुनः, प्रायश्चित्त देने मे कुशल, जिनाज्ञारूप आगमों में दक्ष, वड़ आचार्य राग-द्वेष रहित, अर्थात् माध्यस्थभाव से विवेकपूर्वक प्रायश्चित्त देता है।
__ जो आचार्य प्रायश्चित्तशास्त्र को जाने बिना प्रायश्चित्त देता है, तो वह संसाररूपी कीचड़ में फंसता है एवं अशुभकर्मों का बन्ध करता है। जैसे- अकुशल वैद्य व्याधि की चिकित्सा नहीं कर पाता है, वैसे ही व्यवहार को नहीं जाननेवाला आचार्य रत्नत्रय की विशुद्धि के इच्छुक क्षपक को शुद्ध नहीं कर पाता है, इसलिए क्षपक को आत्मशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त के ज्ञाता व्यवहारवान् आचार्य के पादमूल
संवेगरंगशाला, गाथा ४६३६-४६५६.
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