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214 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
२.
“आधारवान् :- संवेगरंगशाला में आगे निर्यापक के आधारवान् गुण का कथन है जो चौदह पूर्व, दस पूर्व अथवा नौ पूर्व धारी हो, महाबुद्धिशाली हो, सागर के समान गम्भीर हो, कल्प, व्यवहार, आदि प्रायश्चित्त शास्त्रों का ज्ञाता हो, वह ज्ञानी आधारवान् होता है। वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का आधारवाला होने से आधारवान् कहा जाता है। ज्ञान आधार है और जो ज्ञानवान् है, वह आधारवान् है । जो ज्ञानवान् नहीं है, उसका आश्रय लेने में दोष सम्भव है । जिसने सूत्र के अर्थ को ग्रहण नहीं किया है, ऐसा आचार्य उस क्षपक के चतुरंगों को नष्ट कर देता है। इस जन्म में चतुरंगों (मनुष्यत्व, धर्म-श्रवण, श्रद्धा और संयम में उद्यमशीलता) के नष्ट होने पर पुनः इनकी प्राप्ति सुलभ नहीं है, क्योंकि इनके नष्ट होने पर वह मिथ्यात्व से ग्रसित होकर कुयोनि में चला जाता है।
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इस संसाररूपी समुद्र में भयंकर दुःखरूप जल भरा है। इसमें भ्रमण करते हुए जीव बड़े कष्ट से मनुष्य-भव को प्राप्त करता है । उसमें भी देश, कुल, जाति, रूप, आरोग्य, आयु, बुद्धि, धर्म का सुनना, उसे ग्रहण करना, उस पर श्रद्धा होना तथा संयम की साधना करना - ये सब अति दुर्लभ हैं। इस प्रकार परम्परारूप से दुर्लभ संयम को पाकर क्षपक अल्पज्ञ आचार्य के पास से वैराग्यपरक देशना नहीं प्राप्त करता है ।
चिरकाल तक असंयम के त्यागपूर्वक संयम को धारण करके आधारत्व - गुण से रहित आचार्य के पास मृत्यु के समय सम्यक् उपदेश प्राप्त नहीं करने से क्षपक संयम से गिर जाता है या पतित हो जाता है, क्योंकि यह जीव आहारमय है, अन्न ही इसका प्राण है। आहार के न मिलने पर आर्त और रौद्रध्यान से पीड़ित होकर संयम - तपरूपी उपवन में रमण नहीं कर पाता है, किन्तु ज्ञानी आचार्य के द्वारा जिनाज्ञारूप अमृतपान कराने से एवं हित- शिक्षारूप भोजन कराने से क्षुधा तृषा से पीड़ित होने पर भी ध्यान में एकाग्र बन जाता है ।
यह दुःसह क्षुधा तृषा से पीड़ित उस क्षपक को अगीतार्थ (आचार्य) समाधि का उपदेश नहीं करता है, तो वह अल्पज्ञ क्षपक भूख-प्यास से पीड़ित हो, शुभभाव को छोड़ देता है, रूदन करता है, याचना करता है, दीनता प्रकट करता है, अथवा चिल्लाने लगता है तथा यह धर्म पीड़ादायक है - ऐसे निन्दायुक्त चित्त से मिथ्यात्व को प्राप्त होता है तथा असमाधिपूर्वक मरण को प्राप्त होता है। यदि उसके रोने-चिल्लाने पर प्रतिकार करे, तो भाग भी सकता है, इससे धर्म एवं संघ पर दूषण लगता है। इस प्रकार अल्पज्ञ आचार्य योग्य उपाय को न जानता हुआ क्षपक का जीवन नष्ट कर देता है।
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