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212 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
इसमें ही आगे यह भी कहा गया है कि अपने गच्छ के साधुओं को रोगादि से पीड़ित देखकर भी आचार्य को दुःख या स्नेह, आदि के कारण असमाधि हो सकती है; गच्छ में विश्वासपात्र होने से दुःसह तृषा एवं क्षुधा में आचार्य निर्भय होकर अकल्पनीय वस्तु की याचना भी कर सकता है। आत्यन्तिक वियोग, अर्थात् मरण के समय बालमुनियों अथवा साध्वियों को रोते देखकर, अथवा करुण स्वर से बोलते हुए सुनकर उनके प्रति स्नेह, आदि से आचार्य को ध्यान में विघ्न उत्पन्न हो सकता है, साथ ही शिष्य वर्ग आहार- पानी अथवा सेवा शुश्रूषा में यदि प्रमाद करता हो, तो भी साधक को साधना में असमाधि होने की सम्भावना होती है। इस तरह अपने गण में रहकर अनशन स्वीकार करनेवाले को एवं नूतन आचार्य को अप्रशमभाव से ये दोष लगते हैं। इन्हीं दोषों से बचने के लिए तथा आराधना की निर्विघ्न सिद्धि हेतु ही आचार्य परगण में संक्रमण करता है | 483
साथ ही, इसमें अन्त में परगण के मुनियों के उच्चभावों (विचारों) का वर्णन करते हुए कहा गया है- परगण के मुनियों को यह चिन्तन करना चाहिए कि परगण के साधु विद्वान् और भक्तिभाववाले हैं, फिर भी अपने गच्छ को छोड़कर ये महात्मा मुनि (आचार्य) हमारी आशा लेकर यहाँ पधारे हैं। ऐसा विचार करके परम आदरपूर्वक अपनी शक्ति को छिपाए बिना भक्ति-भ -भाव से उनकी सेवा में दृढ़तापूर्वक वर्त्तन करना चाहिए एवं गीतार्थ, चारित्रवान् आचार्य को भी अपने समुदाय की आज्ञा लेकर आगन्तुक का सर्वथा आदरपूर्वक निर्यामक बनना चाहिए। इस तरह संविज्ञ, पापभीरु एवं जिनवचन के सार को प्राप्त करनेवाले आचार्य की निश्रा में रहते हुए आगन्तुक (आचार्य) अवश्य आराधक बनते हैं।
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निर्यापक आचार्य की खोज :
संवेगरंगशाला में गणसंक्रमण हेतु वह क्षपक किन गुणों से युक्त आचार्य का आश्रय लेता है- यह बताया गया है। जिस तरह नगर से प्रस्थान करने से पूर्व व्यक्ति सार्थवाह (साथी) की खोज करता है, उसी तरह परगणसंक्रमण करने से पूर्व क्षपक-निर्यापक आचार्य की खोज करता है । वह क्षपक क्षेत्र की अपेक्षा से छः सौ या सात सौ योजन तक एवं काल की अपेक्षा से बारह वर्ष तक निर्यापक की खोज करता है।
483 संवेगरंगशाला, गाथा ४६१८ - ४६२३. संवेगरंगशाला, गाथा ४६२४-४६२७.
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