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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 211
अपने शिष्यों के ऐसे वचन सुनकर आचार्य अपनी मधुर वाणी से इस प्रकार कहते हैं - हे महानुभावों! तुम्हारे द्वारा ऐसा बोलना अथवा चिन्तन करना भी सर्वथा अनुचित है, क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिशाली व्यक्ति होगा, जो उचित कार्य करने में बाधकरूप होगा? अथवा क्या शास्त्रों में इसकी अनुमति नहीं दी गई है? अथवा पूर्व में किसी ने भी इसका आचरण नहीं किया है और फिर इस क्षणिक जीवन को क्या तुम नहीं देख रहे हो; जिससे तुम सब अमर्यादित एवं अति असद् आग्रह के अधीन बनकर ऐसा बोल रहे हो?480
गुरु एवं आचार्य की वाणी को श्रवण कर शिष्यादि पुनः उनसे इस तरह विनती करते हैं- हे भगवन्! यदि ऐसा ही है, तो अन्य गच्छ में जाने से क्या प्रयोजन? यहाँ आप अपने गच्छ में ही इच्छित प्रयोजन की सिद्धि करें; क्योंकि यहाँ भी प्रस्तुत कार्य में समर्थ, भारवहन करने वाले ऐसे गीतार्थ, उत्साही, निर्भयी, संवेगी, क्षमावान्, विनयवान्, आदि गुणों से युक्त अनेक साधु हैं।
__इस तरह शिष्यों के कथन पर पुनः-पुनः विचार करके, हित-अहित एवं लाभ-हानि का चिन्तन करते हुए आचार्य को स्वगण अथवा परगण में संक्रमण करना चाहिए।
संवेगरंगशाला में स्वगण में संलेखना ग्रहण करने पर आचार्य को किन-किन दोषों के लगने की सम्भावना हो सकती है, उनका निर्देश किया गया है, जैसे - १. आज्ञादोष २. कठोरवचन ३. कलहकरण ४. परिताप ५. स्वछन्दता ६. स्नेह-राग ७. करुणा ८. ध्यान में विघ्न, आदि असमाधि की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।481
इस बात को और स्पष्ट करते हुए इसमें बताते हैं कि जब आचार्य अपने ही गच्छ में अनशन स्वीकार किए हुए हो और स्थविर, छोटे मुनि, नूतन दीक्षित मुनि, आदि आचार्य की आज्ञा का अनादर करते हों, तो इससे उन्हें असमाधि हो सकती है। साधुओं को असंयम में प्रवृत्ति करते देखकर कभी आचार्य कठोर वचन कह भी दे, किन्तु मुनिजनों में सहनशीलता न होने से वे उनसे कलह करते हों, तो इससे सन्ताप-दोष लगता है। इसी तरह कभी-कभी आचार्य को शिष्यादि के प्रति ममत्व-दोष से भी असमाधि उत्पन्न हो सकती है।482
480 संवेगरंगशाला, गाथा ४६०३-४६०७.
संवेगरंगशाला, गाथा ४६०५-४६०७. संवेगरंगशाला, गाथा ४६१४-४६१७.
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