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________________ 210/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री थे तथा उन नगरों में प्रवेश करने हेतु चारों ओर चार द्वार होते थे, उसी तरह आराधना का वर्णन भी विस्तृत एवं रमणीय है। साधक द्वारा आराधनारूपी नगर में प्रवेश हेतु चार मूल द्वारों का प्रतिपादन किया गया है। वे चार द्वार निम्न रूप से वर्णित हैं - १. परिकर्मविधि द्वार २. परगणसंक्रमण-द्वार ३. ममत्व-उच्छेद-द्वार और ४. समाधिलाभ-द्वार। जिनचन्द्रसूरि ने चार मूल द्वारों का निरूपण करने के पश्चात् उनके पन्द्रह, दस, नौ और नौ - इस तरह तेंतालीस उपद्वारों का क्रमशः वर्णन किया है। आगे, इसमें प्रथम परिकर्मद्वार के अर्हताद्वार, लिंगद्वार, शिक्षाद्वार, आदि पन्द्रह उपद्वारों का विस्तृत विवेचन किया गया है एवं कहा गया है कि पुण्यरहित आत्मा की आराधना सफल नहीं होती है। जैसे- शास्त्रों में कहा गया है-ज्ञान का सार उत्तम चारित्र है, चारित्र का सार मोक्ष है एवं मोक्ष का सार अव्याबाध सुख है, वैसे ही प्रवचन का सार आराधना है। यदि साधक ने दीर्घकाल तक निरतिचारपूर्वक आराधना की हो, किन्तु अन्त में यदि ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विराधना हो गई हो, तो भी वह अनन्त संसारी होता है। यहाँ यह भी कहा गया है कि विराधक को उत्कृष्ट से अर्द्धपुद्गल- परावर्तनकाल के पश्चात ही पूनः धर्म की प्राप्ति होती है, किन्तु जगत् में ऐसी भी कुछ महान् आत्माएँ होती हैं, जो अन्त समय में माया एवं विकल्पों से रहित होकर आराधना द्वारा सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेती हैं। ४७८ इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में मरुदेवा-माता का दृष्टान्त वर्णित है। परगणसंक्रमण-विधि : __ संवेगरंगशाला के अनुसार परगणसंक्रमण-विधि में सर्वप्रथम आचार्य अपने स्थान पर नूतन आचार्य की नियुक्ति करता है। फिर अपने गण (समुदाय) एवं नूतन आचार्य को बुलाकर उनसे संलेखना ग्रहण करने के लिए परगण में प्रवेश हेतु अनुमति मांगता है। जब गुरु के मुख से परगणसंक्रमण की बात सुनते हैं, तब शिष्यगण अत्यन्त आर्द्र हृदय एवं गद्गद् स्वर से गुरु से कहते हैं- हे भगवन्! यह आप क्या कह रहे हो? क्या हममें ऐसी बुद्धि अथवा गीतार्थता नहीं है? क्या हम आपके चरणों की सेवा के योग्य भी नहीं हैं? क्या हम संलेखना विधि कराने में अकुशल हैं? हे भगवन! क्या आपश्री का हमें छोड़ देना उचित है? आज भी यह गच्छ आपश्री से शोभायमान हो रहा है। कालचक्र गिरने के समान ऐसे वचन बोलने से क्या लाभ?479 47 संवैगरंगशाला, गाथा ७१०-७१६ 478 संवेगरंगशाला, गाथा ७१७-७२२. 479 विंगरंगशाला, गाथा ४५६०-४६०२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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