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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 209 है कि सामान्यतया साधक को अपने पापों का प्रायश्चित्त गुरु के समक्ष ही करना चाहिए, किन्तु गुरु की अनुपस्थिति में स्वयं ही आलोचना करना चाहिए। 474 इसके पश्चात् हाथ जोड़कर पंचपरमेष्ठि को वन्दन - नमन करते हुए साधक को इस प्रकार कहना चाहिए हे भगवंत्। मैं आपसे विनम्रतापूर्वक यह प्रार्थना करता हूँ कि जिस प्रकार पूर्व में मैंने मिथ्यात्व को त्याग करके सम्यक्त्व को ग्रहण किया था, उसी प्रकार अब पुनः मिथ्यात्व को त्रिविध - त्रिविध रूप से त्याग करके पुनः सम्यक्त्व को अंगीकार करता हूं। साथ ही, परमात्मा के गुणों की स्तुति करते हुए यह कहे - अरिहन्त और सिद्ध ही मेरे देव हैं तथा आचार्य, उपाध्याय एवं साधु ही मेरे गुरु हैं, ऐसा मैंने पूर्व में स्वीकार किया था और अब पुनः वही प्रतिज्ञा विशेष रूप से स्वीकार करता हूँ। इसी तरह व्रतों को भी मैं पुनः विशेष रूप से स्वीकार करता हूँ। 475 संवेगरंगशाला में विशेष आराधना के अन्त में यह प्रतिपादित किया गया है कि सर्व जीवों से विशेष रूप से क्षमायाचना कर तथा सर्व पदार्थों एवं देह के प्रति राग-भाव का त्याग करते हुए साधक चतुर्विध आहार-त्याग का प्रत्याख्यान करे। इस तरह अन्त में साधक पंचपरमेष्ठि के स्मरणपूर्वक शुभध्यान में शरीर का त्याग करे। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में मधुराजा एवं सुकौशलमुनि का दृष्टान्त दृष्टव्य है 1476 - इसी सन्दर्भ में एक अन्य दृष्टान्त सुदर्शन श्रावक द्वारा लिए गए सागारी - संथारे का हो सकता है। विस्तृत आराधना (दीर्घकालिक समाधिमरण की साधना ) का स्वरूपः वृद्धावस्था या असाध्य बीमारी आदि की स्थिति में जब मृत्यु अवश्यम्भावी प्रतीत हो, किन्तु तत्काल उसकी सम्भावना नहीं हो, तो विस्तृत आराधना ग्रहण की जाती है। विस्तृत आराधना, अर्थात् दीर्घकालिक समाधिमरण की साधना में साधक क्रमशः शरीर और कषायों को कृश करते हुए दीर्घकाल के पश्चात् अन्त में आहार का त्याग करके देहत्याग करता है। संवेगरंगशाला में विस्तृत आराधना का विवेचन करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि जिस प्रकार प्राचीनकाल में नगर विशाल एवं रमणीय हुआ करते 474 संवेगरंगशाला, गाथा ६२४-६२५. 475 स्वगरंगशाला, गाथा ६२६-६३५. 476 संवेगरंगशाला, गाथा ६३६ - ६४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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