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________________ 208 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री अध्याय - ४ समाधिमरण की आराधना विधि संवेगरंगशाला में आराधना के निम्न रूप से दो भेद किए गए हैं - प्रथम, सामान्य आराधना का स्वरूप एवं द्वितीय, विशेष आराधना का स्वरूप। उसमें विशेष आराधना का तात्पर्य समाधिमरण की साधना से है, अतः उसमें सर्वप्रथम सामान्य आराधना के विवेचन करने के पश्चात् विशेष आराधना का वर्णन किया गया है। पुनः, संवेगरंगशाला में विशेष आराधना को भी संक्षिप्त आराधना एवं अन्तिम आराधना- इस तरह दो भागों में विभक्त किया गया है। संक्षिप्त विशेष आराधना (तात्कालिक समाधिमरण की साधना) का स्वरूप : संवेगरंगशाला में विशेष आराधना के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा गया है कि साधक द्वारा की गई विशेष आराधना को ही संलेखना या समाधिमरण कहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में भी संलेखना व्रत के विषय में कहा गया है - 'मरणान्तिकी संलेखनां जोषिता,' अर्थात् जीवन के अन्त में संलेखना धारण करना चाहिए। यहाँ संलेखना का सामान्य अर्थ है- जीवन के सन्ध्याकाल में सम्यक् प्रकार से आत्मालोचन करना। समाधिमरण की यह साधना भी दो प्रकार की है - संक्षिप्त आराधना और विस्तृत आराधना। संक्षिप्त आराधना तब की जाती है, जब अकस्मात् मारणान्तिक-संकट उपस्थित हो जाए। उस समय साधक के पास अधिक समय नहीं होता है। संवेगरंगशाला में यह कहा गया है कि जब साधक को ऐसी अनुभूति हो कि मृत्यु अति सन्निकट आ गई है, तब उसे गुरु के समक्ष समाधिमरण स्वीकार करने की इच्छा प्रकट करना चाहिए। उस समय आचार्य भगवन्त को साधक के चित्त की स्थिति को परखते हुए विचारपूर्वक पूर्व पापों का प्रायश्चित्त कराकर फिर समाधिमरण ग्रहण कराना चाहिए। इसमें आगे जिनचन्द्रसूरि ने यह निरूपण किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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