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200 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री की जगह सहृदयानुराग नामोल्लेख प्राप्त होता है एवं सागारधर्मामृत में संलेखना के पाँच अतिचारों का अर्थ इस प्रकार है- जीने की इच्छा; यह शरीर अवश्य हेय है, जल के बुलबुले के समान अनित्य है, इत्यादि चिन्तन न करके 'यह शरीर कैसे बना रहे- इस प्रकार की इच्छा होना। अपना विशेष आदर-सत्कार तथा बहुत से सेवकों को देखकर, सब लोगों से अपनी प्रशंसा सुनकर ऐसा मानना कि चारों प्रकार के आहार का त्याग कर देने पर भी मेरा जीवित रहना ही उत्तम है, यह प्रथम अतिचार है। दूसरा अतिचार है- मरने की इच्छा, रोग आदि के उपद्रवों से व्याकुल होने से मरने के प्रति चित्त का उपयोग लगाना, अथवा आहा त्याग देने पर भी कोई आदर नहीं करता, न कोई प्रशंसा करता है, अतः मैं शीघ्र मर जाऊँ, तो ही उत्तम है- इस प्रकार के परिणाम होने पर मरणाशंसा नामक दूसरा अतिचार होता है। बचपन में साथ-साथ खेलने, कष्ट में सहायक होने, उत्सवों में आनन्दित होने आदि - मित्रों के अनुराग का स्मरण करना तीसरा अतिचार है। मैंने जीवन में इस प्रकार के भोग भोगे हैं, मैं इस प्रकार सोता था, मैं इस प्रकार क्रीड़ा करता था - इत्यादि अनुभूत भोगों का स्मरण करना सुखानुबन्धस्मरण नाम का चतुर्थ अतिचार है। इस कठोर तप के प्रभाव से मैं आगामी जन्म में इन्द्र, चक्रवर्ती धरणेन्द्र, आदि होऊँ - इस प्रकार के अनागत अभ्युदय की इच्छा निदान नामक पाँचवाँ अतिचार है। इन अतिचारों से क्षपक को बचना चाहिए।459
उपर्युक्त ग्रन्थों के आधार से यही फलित होता है कि समाधिमरण के मुख्यतः पाँच अतिचार हैं। इनके नामों में चाहे भिन्नता हो, किन्तु अर्थ या भावों में तो समानता नजर आती है, इसलिए समाधिमरण की प्राप्ति के लिए साधक को इन पाँच अतिचारों से मुक्त रहना अनिवार्य है।
समाधिमरण प्राप्त मुनि के मृत शरीर का विसर्जन (विजहणा) कहाँ और कैसे :
__ संवेगरंगशाला मे विजहणा-द्वार की चर्चा करते हुए लिखा गया हैशास्त्रोक्त-विधि अनुसार समाधिमरण या अन्तिम आराधना करते हुए क्षपक (मुनि) जब मृत्यु को प्राप्त करता है, तब निर्यापक आचार्य को उसके शरीर के विसर्जन के विषय में सम्यक् प्रकार से विचार करना चाहिए। क्षपक के देह-त्याग के बाद जो क्रिया की जाती है, उसे विजहणा या शरीर-परित्याग कहते हैं। 460 प्राचीन परम्परा में क्षपक के मृत शरीर को जंगल में मुनियों द्वारा ही विसर्जित किया जाता था, किन्तु वर्तमान में उसका गृहस्थों द्वारा दाह-संस्कार किया जाता है।
45 सागारधर्मामृत, अध्याय अष्टम, गाथा ४६. 460 संवेगरंगशाला गाथा - ६७६६.
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