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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 201
(अ) शोक - विसर्जन - जब क्षपक की मृत्यु हो जाती है, तो उसके शरीर को देखकर - अहो ! तुम लोगों ने दीर्घकाल तक औषधादि उपचारों से क्षपक की सार सम्भाल एवं सेवा की तथा चिरकाल तक वह अपने साथ रहा, स्वाध्याय किया तथा समाधि ग्रहणकर हमें अनुगृहीत किया; इस तरह लम्बे समय तक के सहवास से तथा अपने ज्ञानादि गुणों के द्वारा वह हम सब में से किसी को बन्धु के सदृश, तो किसी को पुत्र के तुल्य एवं अन्य मुनिजनों को मित्र के समान प्रिय था तथा शुद्ध प्रेम का परम पात्र था, परन्तु फिर भी निर्दय मृत्यु ने हम सबसे तुझे क्यों छीन लिया? हा! हा! हम लुट गए, हम लुट गए इस तरह जोर-जोर से शब्दोच्चार करके चिल्लाना, रोना या शोक प्रकट करना, इत्यादि निर्यापक आचार्य और गणस्थ साधुओं को नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से चिल्लानेवाले का शरीर कृश होता है, शक्ति क्षीण होती है, स्मृति भ्रष्ट होती है, बुद्धि विपरीत हो जाती है, पागलपन प्रकट होता है तथा हृदय रोग (हृदयाघात) होने की भी सम्भावना होती है। इस तरह बारम्बार रोने आदि की क्रिया करने से इन्द्रियाँ भी शिथिल तथा कमजोर हो जाती हैं, विवेक भी नष्ट हो जाता है, इससे मुनि की लघुता प्रकट होती है तथा लोक व्यवहार में इसे अच्छा नहीं माना जाता है, क्योंकि मुनि मोह-ममता का त्यागी होता है। इससे ज्यादा क्या कहा जाए? क्योंकि शोक सर्व अनर्थों की खान है, इसलिए ज्ञानी पुरुषों को शोक का परित्याग करके अप्रमत्तचित्त से संसार की स्थिति का विचार करना चाहिए।
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इस
भवस्थिति का निरूपण करते हुए कहा गया है- हे जीव! तू बारम्बार शोक क्यों करता है? क्या तू नहीं जानता है कि जो जन्म लेता है, वह मृत्युको प्राप्त करता है, जन्म के पश्चात् मृत्यु अवश्यम्भावी है। जन्म लेने के बाद मृत्यु कभी रुकती नहीं है, क्योंकि जन्म के बाद मृत्यु एवं मृत्यु के बाद जन्म तरह दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, लेकिन मृत्यु ( निर्वाण ) के बाद जन्म लेना अनिवार्य नियम नहीं है, किन्तु जन्म के पश्चात् मृत्यु होना- यह शाश्वत नियम है, जैसे - महावीर स्वामी, आदि। यदि मरण को रोका जा सकता, तो दुष्ट भष्मराशि ग्रह के उदय होने पर और इन्द्र द्वारा बारम्बार विनती करने पर भी अतुल बलशाली तीन लोक के नाथ महावीर परमात्मा ने सिद्धि गमन के समय अल्प समय के लिए भी मृत्यु को क्यों नहीं रोका?
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अतः, लम्बी अवधि तक समाधिमरण की साधना करके कालधर्म को प्राप्त हुए उस क्षपक मुनि के लिए आंशिक भी शोक करना योग्य नहीं है, इसलिए संसार की विषम परिस्थिति का सम्यक्पूर्वक विचार करते हुए निर्यापक आचार्य को
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