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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 199
की एवं मरने की इच्छा तथा इहलोक एवं परलोक के सुख की आकांक्षा से मुक्त एवं कामभोग का त्यागी होता है, वही समाधिमरण को प्राप्त होता है।454
___ उपासकदशांगसूत्र में संलेखना के निम्न पाँच अतिचारों का उल्लेख हैइहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीविआसंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे। 455 पंचप्रतिक्रमणसूत्र में भी संलेखना के पाँच अतिचार यही बताए गए हैं।
१. इहलोक-आशंसा-प्रयोग :- ऐहिक-सुखों की कामना करना। धर्म के प्रभाव से मुझे इहलोक-सम्बन्धी राजऋद्धि, आदि की प्राप्ति हो, ऐसी इच्छा करना, जैसे-मैं मरकर राजा या समृद्धिशाली बनूं।
२. परलोक-आशंसा-प्रयोग :- पारलौकिक सुखों की कामना करना, अर्थात् मृत्यु के पश्चात् देव-देवेन्द्र आदि सुखों की कामना करना।
३. जीवित-आशंसा-प्रयोग :- जीवन जीने का आकांक्षा करना, जैसे- कीर्ति आदि अन्य कारणों के वशीभूत होकर सुखी अवस्था में अधिक जीने की इच्छा करना।
४. मरण-आशंसा-प्रयोग :- मृत्यु की आकांक्षा करना। जैसे - जीवन में शारीरिक-प्रतिकूलता में, भूख-प्यास या अन्य दुःख आने पर मृत्यु की इच्छा करना, आदि।
५. काम-भोग-आशंसा-प्रयोग :- इन्द्रियजन्य विषयों के भोगों की आकांक्षा करना।
तत्त्वार्थसूत्र 456 में जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध एवं निदानकरण-इस तरह पाँच अतिचारों के उल्लेख मिलते हैं, जबकि रत्नकरण्डक-श्रावकाचार'57 में सुखानुबन्ध के स्थान पर भयानुशंसा नामक अतिचार का उल्लेख मिलता है। इसमे भयानुशंसा के इहलोकभय एवं परलोकभय - इस तरह दो प्रकार उपलब्ध होते हैं। पुरुषार्थसिद्धयुपाय:58 में भी समाधिमरण के पाँच अतिचारों का निर्देश है, किन्तु वहाँ भी अन्तर मात्र इतना ही है कि मित्रानुराग
454 संवेगरंगशाला, गाथा ६४३४-६४३५.
उपासकदशांगसूत्र १/५७. १२० तत्त्वार्थसूत्र ७/३२.
रलकरण्डकश्रावकाचार, ५/८. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १६५.
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