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________________ 198 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री को आदर नहीं देता और पापकर्मों का संकलन भी नहीं करता है, तो हे चित्त! तुझे नमस्कार है। सचमुच तू वन्दनीय है।451 आगे ग्रन्थकार प्रमादरूपी मदिरा को पीकर मस्त बने मन को सम्बोधित कर कहते हैं- यदि तुझे जिनाज्ञा पर श्रद्धा नहीं है और यदि तू यथाशक्ति साधु-जीवन की विशुद्ध क्रिया करने में निरुत्साहित बना हुआ है, तो हे मूढ़ात्मा! धर्मरूपी नाव मिलने पर भी तू संसाररूपी समुद्र में डूब जाएगा।452 - इस द्वार के अन्त में कहा गरग है- यदि राह जीत भावपूर्वक एक दिन की भी दीक्षा स्वीकार कर ले, तो वह चाहे मोक्ष को प्राप्त नहीं भी करे, तो भी वैमानिकदेव तो अवश्य बन जाता है। अरे! एक दिन तो बहुत ज्यादा समय है, एक मुहूर्त्तमात्र भी ज्ञान का सम्यक् परिणमण होने से इष्टफल की प्राप्ति होती है। शास्त्र में कहा भी है- अज्ञानी जिन कर्मों का करोड़ों वर्ष में क्षय करते हैं, उतने कर्मों को तीन गुप्ति से गुप्त पुरुष एक उच्छ्वास (श्वांस) मात्र में क्षय कर देता है। प्रस्तुत कृति में इस सम्बन्ध में मित्र को शत्रु और सत्य को असत्य मानने वाले मन की वृत्ति पर वसुदत्त की कथा उल्लेखित है।453 समाधिमरण सम्बन्धी अतिचारः जैनदर्शन में समाधिमरण ग्रहण करने वाले की योग्यता, समाधिमरण स्वीकार करने की विधि एवं तत्सम्बन्धी हित-शिक्षा आदि का विवरण उपलब्ध होता है। इन विधियों एवं शिक्षाओं को ध्यान में रखते हुए सावधानीपूर्वक समाधिमरण ग्रहण करने के पश्चात् भी प्रमाद अथवा अज्ञानदशा के कारण जिन दोषों के लगने की सम्भावना होती है, उन्हें अतिचार कहते हैं। समाधिमरण स्वीकार करके उसकी सम्यक्पे ण साधना करना सर्वाधिक कठिन कार्य है। लम्बी अवधि तक आराधना करते हुए समाधि न होने पर कभी-कभी अन्य विचार भी उत्पन्न हो सकते हैं। साधक के मन में जिस प्रकार के शुभाशुभ विचार उठते हैं, उसी प्रकार के कर्मों का बन्ध होता है। इन शुभाशुभ विचारों से चित्त की समाधि के खण्डित होने की सम्भावना होती है। जैन-आचार्यों ने समाधिमरण के लिए जिन निम्न पाँच दोषों से बचने का निर्देश किया है, संवेगरंगशाला में भी उन्हीं पाँच अतिचारों से बचने का उल्लेख मिलता है। उसमें कहा गया है कि जो बुद्धिमान् साधक जीने 451 संवेगरंगशाला, गाथा १६१०. 452 संवेगरंगशाला, गाथा १८५४-१९५५. 453 संवेगरंगशाला, गाथा १९६६-१६७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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