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जैन-धर्म में लगभग ईस्वी सन् की दूसरी या तीसरी शताब्दी से आराधना सम्बन्धी या समाधिमरण की साधना से सम्बन्धित साहित्य का निर्माण होता रहा है। इस साहित्य में मरणविभक्ति, आराधनापताका, भगवतीआराधना, वीरभद्र आचार्यकृत आराधनापताका आदि अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं। इन ग्रन्थों में जीवन कैसे जीना चाहिए और मृत्यु का
अविचलित भाव से कैसे स्वागत करना चाहिए-ये दोनों ही बातें बताई गई हैं। वस्तुतः, प्रत्येक साधक के लिए यह जीवन और मरण-दोनों की कला जानना आवश्यक है।
एक जैन साध्वी के रूप में मेरा जीवन इस आराधना या साधना के लिए समर्पित है, अतः मैंने यह निश्चय किया कि आराधना से सम्बन्धित किसी ग्रन्थ पर शोधकार्य किया जाए। मैं जिस परम्परा में दीक्षित हुई, उस परम्परा में आराधना से सम्बन्धित सबसे प्राचीन ग्रन्थ आचार्य जिनचन्द्र (प्रथम) द्वारा प्रणीत संवेगरंगशाला है। यद्यपि आराधना सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ लिखे गए, किन्तु इन सभी ग्रन्थों में आकार की दृष्टि से संवेगरंगशाला सबसे विस्तृत ग्रन्थ है। कालक्रम की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व ग्यारहवीं शती में लिखा गया है। इस ग्रन्थ में १००५४ गाथाएँ हैं। प्राकृत भाषा में रचित आराधना से सम्बन्धित जैन साहित्य के ग्रन्थों में यह सबसे विस्तृत ग्रन्थ है, इसी कारण यह मेरे अध्ययन के आकर्षण का विषय रहा। यद्यपि इसके पूर्व मरणविभक्ति, भगवतीआराधना, प्राचीन आचार्यकृत आराधनापताका, आदि ग्रन्थ लिखे जा चुके थे, किन्तु ये सभी ग्रन्थ विद्वत् जगत् में सुपरिचित थे। भगवतीआराधना पर तो पर्याप्त रुप से शोधकार्य भी हुए हैं, जबकि संवेगरंगशाला एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसके नाम से भी विद्वत्-जगत् प्रायः अपरिचित ही रहा है।
जहाँ तक संवेगरंगशाला का प्रश्न है, यह कृति आज से लगभग ४० वर्ष पूर्व तक विद्वानों को अप्राप्त ही थी। कुछ ग्रन्थों में इसके लिखे जाने की तथा कुछ भण्डारों में ही इसकी हस्तप्रत उपलब्ध होने की सूचनाएँ थीं, किन्तु इस कृति के सम्बन्ध में विशेष जानकारियों का प्रायः अभाव ही था। यही कारण है कि जैन-साहित्य के बृहद् इतिहास भाग-५, जो प्रथमतः ईस्वी सन् १६६६ में छपा था, उसमें स्पष्ट रूप से यह निर्देश किया गया है कि यह कृ ति अभी तक अप्रकाशित है। प्रस्तुत कृति का सर्वप्रथम प्रकाशन भी विक्रम
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