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________________ भूमिका जैन-धर्म साधना प्रधान है। इसके अनुसार मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधना या आराधना आवश्यक है। यद्यपि मोक्ष की प्राप्ति के लिए उसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को आवश्यक माना गया है, किन्तु मोक्ष का अन्तिम हेतु सम्यक्चारित्र ही है। सम्यक्चारित्र का परिपालन ही वस्तुतः साधना या आराधना कहलाता है। साधना एवं आराधना हेतु जैन-दर्शन में विपुल साहित्य का सृजन हुआ है। जैन-साधनात्मक साहित्य के ग्रन्थों में आगम और आगमिक-व्याख्याओं के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ भी लिखे गए हैं। इन ग्रन्थों में भी कुछ ग्रन्थ सामान्य आचार को लेकर लिखे गए हैं, तो कुछ ग्रन्थ अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना को लेकर लिखे गए हैं। आगम-साहित्य में अनेक प्रकीर्णक मूलतः आराधना या विशेष रूप से अन्तिम आराधना (समाधिमरण की आराधना) से सम्बन्धित हैं। जैन परम्परा में समाधिमरण की आराधना को विशेष महत्व दिया गया है। जैनदर्शन न केवल जीवन जीने की कला सिखाता है, अपितु मरण की कला भी सिखाता है। जीवन और मरण- ये दोनों हमारे जीवन के अनिवार्य पक्ष हैं। अनेक स्थितियों में यह होता है कि व्यक्ति जीवन तो जी लेता है, किन्तु मृत्यु से भयभीत होकर अपने मरण को बिगाड़ लेता है। मृत्यु जीवन का अनिवार्य पक्ष है। जब मृत्यु जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही हो, तो उसका स्वागत किस प्रकार से करना चाहिए; यह बात जैन-धर्म के अन्तिम आराधना सम्बन्धी ग्रन्थों में या समाधिमरण की साधना सम्बन्धी ग्रन्थों में हमें मिलती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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