________________
प्रेरणा दी है। यह कृति तार्किक या दार्शनिक वाद-विवाद से परे होकर उपदेश प्रधान है।
साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने से ही मैंने संयमी जीवन की साधना में रत साध्वी प्रियदिव्यांजना श्री को इस पर शोधकार्य करने की प्रेरणा दी। इस कृति को शोध का विषय बनाने की मेरी दृष्टि में अन्य भी कारण थे। प्रथम तो यह कि प्राकृत भाषा का लगभग एक हजार वर्ष प्राचीन यह ग्रन्थ अध्ययन की दृष्टि से प्रायः उपेक्षित ही रहा है। दूसरे इस के हिन्दी भाषा में एक अच्छे अनुवाद की महती आवश्यकता थी। तीसरे साध्वीजी जिस खरतरगच्छ परम्परा से सम्बन्धित है, यह उसी परम्परा के आद्य आचार्य का ग्रन्थ था। इन सब तथ्यों पर विचार करके ही इस ग्रन्थ पर शोधकार्य करवाने का निश्चय किया गया।
मेरी यह अवधारणा है कि शोधकार्यों के माध्यम से प्राकृत के कुछ प्राचीन किन्त उपेक्षित ग्रन्थों को पुनः प्रकाश में लाया जाये। इस दृष्टि से यह शोधकार्य किया गया है।
मुझे सन्तोष है कि साध्वी प्रियदिव्यांजना श्रीजी ने लगभग डेढ़ वर्ष मेरे सान्निध्य में रहकर परिश्रम पूर्वक यह कार्य सम्पन्न किया है। जिस पर उन्हें जैन विश्वभारती से पीएच.डी. की उपाधि भी प्राप्त हो चुकी है। आज उसके प्रकाशन की इस बेला में मैं प्रमुदित हूँ कि उनका यह श्रम अब जन-जन के लाभार्थ सार्थक बन रहा है। जहां इस ग्रन्थ के प्रारम्भ के प्रारम्भिक अध्ययन जैन साधना के साधकों की दृष्टि से उपयोगी है, वहाँ इसका कथा भाग बालकों और महिलाओं के लिए भी उपयोगी होगा और उनमें नवनैतिक और धार्मिक संस्कारों को जाग्रत करेगी।
वैशाख शुक्ल -१० वि. संवत्- २०६४
भवदीय डॉ. सागरमल जैन
प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर (म.प्र.)
Jain Education International
.For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org