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________________ प्राक्कथन जैनाचार्यों द्वारा प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश, मरुगुर्जर, तमिल, कन्नड़, मराठी, गुजराती और हिन्दी भाषा में विपुल साहित्य का सर्जन हुआ है। आचार्य जिनचन्द्रसूरि ( प्रथम ) द्वारा प्रणीत संवेगरंगशाला नामक यह कृति महाराष्ट्री प्राकृत का एक विशालकाय और महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का वर्ण्य विषय जैन साधना और आराधना की विधि है। यह उपदेशपरक और वैराग्य प्रधान ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का संवेगरंगशाला नाम भी सार्थक है, क्योंकि यह संवेग अर्थात् वैराग्य प्रधान तथा भवभ्रमण से मुक्त करने वाली साधना विधि को प्रस्तुत करता है। रंग शाला शब्द का अर्थ नाट्यगृह या रंग मंच है। दार्शनिकों ने इस संसार को रंगमंच की संज्ञा दी है। यह संसार एक रंगमंच है, जहां जीवात्माएं भव- भम्रण करते हुए अपना-अपना अभिनय प्रस्तुत करती है । किन्तु आचार्य जिनचन्द्रसूरिजी एक अन्य रंगशाला की कल्पना की है, जिसे उन्होंने संवेगरंगशाला नाम दिया है। संवेग शब्द सम् + वेग से निष्पन्न होता है अर्थात् जिसमें आवेगों (मानसिक संकल्प - विकल्पों या मानसिक आवेगों) का वेग अर्थात् गति सम् हो जाती है। उसे संवेग कहते है। संवेग का सामान्य अर्थ वैराग्य या अनासक्ति या माध्यस्थवृत्ति | संवेग चेतना की वह अवस्था है जिसमें आत्मा इच्छाओं, आकांक्षाओं एवं संकल्प-विकल्पों से मुक्त होकर निराकुल आत्मिक आनन्द को प्राप्त करती है। वस्तुतः संवेग तनाव मुक्त होकर जीवन जीने की एक शैली है- यही कारण है कि इसे वैराग्य - मार्ग या मोक्षमार्ग कहा गया है। इसीलिए आचार्य जिनचंद्रसूरिजी ने इस कृति में जैन धर्म की अपेक्षा से साधना एवं आराधना की विधि प्रस्तुत करते हुए उन्हें अपनी जीवन-शैली का अंग बनाने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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