________________
साधना प्रधान सुन्दरकृति
साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्रीजी का शोध-निबन्ध 'जैन धर्म में आराधना का स्वरूप'- एक महत्वपूर्ण कृति है। इस कृति का आधार आचार्य जिनचन्द्रसूरि द्वारा विरचित 'संवेगरंगशाला' नामक ग्रन्थ है। मूलग्रन्थ लगभग बारहवीं शती में प्राकृत भाषा में रचित है। पू. साध्वीजी ने इसी ग्रन्थ को आधार बनाकर जैन धर्म में आराधना का क्या स्वरूप रहा है, इसे विस्तार से एवं पूरी स्पष्टता से प्रतिपादित किया है। यद्यपि प्रस्तुत कृति का मुख्य प्रतिपाद्य तो अन्तिम आराधना अर्थात् समाधिमरण की साधना रहा है, फिर भी प्रसंगानुसार इसमें श्रावक एवं मुनि वर्ग की सामान्य साधना का भी चित्रण है। मेरी दृष्टि में यह कृति सभी स्तर के साधकों के लिए उपयोगी है। इस कृति के अन्त में जैन साधना के विविध पक्षों के सन्दर्भ में लगभग एक सौ प्रेरक कथाएँ भी मूलग्रन्थ के आधार पर संक्षिप्त रूप में दी गई हैं, जिन्हें पढ़कर सामान्य व्यक्ति भी जैन साधना के क्षेत्र में अग्रसर हो सकता है। इस महत्वपूर्ण कृति के युगानुरूप हिन्दी भाषा में सृजन के लिए साध्वीजी धन्यवाद की पात्र हैं।
प्रस्तुत कृति का प्रकाशन डॉ. सागरमल जैन के सम्पादकत्व में प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर द्वारा हो रहा है, एतदर्थ वे एवं प्रकाशन संस्था भी बधाई की पात्र है।
- डॉ. धर्मचन्द जैन प्राध्यापक, संस्कृत विभाग
निदेशक, बौद्ध अध्ययन ज.ना. व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
एवं सम्पादक, जिनवाणी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org