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________________ संवत् २०२५, तदनुसार ईस्वी सन् १६६६ में मूल गाथाओं के रूप में जवेरी कान्तिलाल मणिलाल मुम्बई के द्वारा किया गया। इसका सम्पादन आचार्य विजयमनोहरसूरि के शिष्य हेमेन्द्रविजयजी ने किया है। इसके प्रकाशन के पूर्व जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग - ५ लिखा जा चुका था। इसके पश्चात् इस कृति को उन्हीं आचार्य विजयमनोहरसूरि के शिष्य आचार्य भद्रंकरसूरि ने गुजराती अनुवाद के साथ विक्रम संवत् २०३२ तदनुसार ईस्वी सन् १६७६ में महावीर जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ पालड़ी, अहमदाबाद के द्वारा प्रकाशित करवाया गया। इसी क्रम में विक्रम संवत् २०४१ तदनुसार ईस्वी सन् १६८५ में पन्यास श्रीपद्मविजयजी के द्वारा इसका मात्र हिन्दी अनुवाद मेरठ से प्रकाशित किया गया है। इस हिन्दी अनुवाद में मूल गाथाएँ भी नहीं दी गई हैं और उनका हिन्दी अनुवाद भी व्याकरण आदि की दृष्टि से अत्यन्त शुद्ध नहीं है। इसकी भाषा भी प्रवाहरहित है और विषय को प्रमाणिक रूप से प्रस्तुत नहीं करती है। स्थिति यह है कि अनुवाद के आधार पर विषय को पकड़ पाना भी दुरूह है। इस प्रकार इस ग्रन्थ के प्रकाश में आने की कथा अधिक पुरानी नहीं है । ग्रन्थ की अनुपलब्धता के कारण पूर्व में किसी भी जैन विद्वान् ने इस पर कोई शोधकार्य नहीं किया और न ही इस ग्रन्थ को लेकर कोई शोध लेख लिखा गया। इस प्रकार समाधिमरण पर एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ होते हुए भी अद्यतन यह ग्रन्थ अचर्चित ही रहा । इसीलिए मैंने यह सोचा कि इस शोध के माध्यम से इस ग्रन्थ और इसकी विषयवस्तु से विद्वत् जगत् और जिज्ञासुओं को परिचित करवाया जा सकता है। यही सोचकर मैंने अपने शोध का विषय " संवेगरंगशाला में प्रतिपादित आराधना का स्वरूप : एक अध्ययन” ऐसा निर्णीत किया। मैं अपने इस कार्य में कहाँ तक सफल हो सकी हूँ, यह तो भविष्य के गर्भ में निहित है, किन्तु मुझे पूरा विश्वास है कि इस शोध के माध्यम से विद्वत् जगत् एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ से न केवल परिचित होगा, अपितु आराधना सम्बन्धी ग्रन्थों में इस ग्रन्थ के मूल्य और महत्व को भी जान सकेगा । न केवल ग्रन्थ-परिचय की दृष्टि से, अपितु तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से भी इस ग्रन्थ पर शोध कार्य होना आवश्यक प्रतीत होता है। अपने प्रारम्भिक अध्ययन में मुझे यह ज्ञात हुआ कि इसकी अनेक गाथाएँ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों तथा प्राचीन आचार्यकृत आराधनापताका और वीरभद्रकृत आराधनापताका के समरूप हैं। मात्र यह ही नहीं, अचेल परम्परा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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