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188 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री "क्षपक नियमपूर्वक गुरु के समीप चारों आहार का त्याग करता है और मर्यादित स्थान में ही शारीरिक क्रियाएँ करता है। करवट बदलना, उठना या बैठना, आदि कायिक-क्रियाएँ एवं लघुनीत-बड़ीनीत आदि क्रियाएँ भी स्वयं करता है। धैर्यवान्, बलयुक्त मुनि सर्वकार्य अपने-आप करता है, दूसरों की सहायता नहीं लेता है। इस प्रकार विधिपूर्वक इंगिनीमरण करके परमपद का अधिकारी बनता है।418
__“आराधनापताका में इंगिनीमरण से मृत्यु को प्राप्त करनेवाला जीव प्रथम संहनन, अर्थात् वज्रऋषभनाराच-संहनन से युक्त होता है- ऐसा उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इंगिनीमरण का साधक इतना निर्भय एवं निराकुल होता है कि यदि संसार के सारे पुद्गल भी दुःखरूप में परिणत हो जाएं, तब भी उसे दुःखी नहीं कर सकते। वह धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में ही रहता है, आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान में नहीं जाता है। स्वाध्याय एवं शुभध्यान ही उसके जीवन के अंग बन जाते हैं। मौन एवं अभिग्रह धारक उस आराधक से यदि देव एवं मनुष्य कुछ पूछे, तो वह मात्र धर्मकथा करता है।" यही बात भगवतीआराधना में भी कही गई है कि समस्त परिग्रहों का त्याग करके धैर्यबल से युक्त वह क्षपक सब परीषहों को जीतता है और लेश्या-विशुद्धि से सम्पन्न होकर धर्मध्यान करता है।"419
गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) में इंगिनीमरण को स्पष्ट करते हुए लिखा गया है- “अपने शरीर की सेवा-शुश्रूषा व्यक्ति स्वयं करे, उसे किसी तरह का रोग हो जाए, तो अपने रोग का उपचार भी स्वयं करे, उसका उपचार अन्य से नहीं कराए, इत्यादि। इन विधियों का पालन करते हुए यदि व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो इस मरण को इंगिनीमरण कहा जाता है।7420 १७. पादपोपगमनमरण :
संवेगरंगशाला के अनुसार मरण के इस अन्तिम प्रकार में साधक कटे हुए वृक्ष की तरह बिना हलन-चलन किए मृत्युपर्यन्त एक स्थान पर पड़ा रहकर देह-त्याग करता है, इसे पादपोपगमनारण कहते हैं। यह पादपोपगमनमरण भी दो प्रकार का है:- १. निहारिम और २. अनिहारिमा साधक को कोई हरणकर या उठाकर ले जाए और इस प्रकार उसका देह-त्याग अन्य स्थान पर हो, तो उसे निहारिम-पादपोपगमनमरण कहते हैं। यदि साधक अपने स्थान पर ही मृत्यु को प्राप्त होता है, तो उसे अनिहारिम-पादपोपगमनमरण कहते हैं। इस मरण को
(अ) आचारांगसूत्र (शीलांक टीका) पत्रांक-२८६.
(ब) भगवतीआराधना, पृ. २०२६. 419
" आराधनापताका, गाथा ६०७, ६११, ११६ आदि. 420 गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), ६१. .
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